Saturday, November 2, 2019

गोधूलि (साकी की प्रसिद्द कहानी ‘डस्क’ का हिन्दी अनुवाद ) - Published in 'कादम्बिनी' नवम्बर २०१९ अंक



गोधूलि
(साकी की प्रसिद्द कहानी ‘डस्क’ का हिन्दी अनुवाद http://epaper.livehindustan.com/epaper/Magazine/Kadambani/2019-11-01/520/Page-1.html




नार्मन गोर्ट्स्बी पार्क की बेंच पर बैठा हुआ था। उसकी पीठ के पीछे घास की पट्टी के बाद पार्क की रेलिंग थी और सामने एक चौड़ा वाहन पथ। लन्दन का प्रसिद्द हाईड पार्क कार्नर, वाहनों के शोर शराबे के साथ, उसके ठीक दाहिनी ओर स्थित था। शुरुआती मार्च की संध्या का लगभग साढ़े छह का समय। मद्धिम सी चांदनी और, ढेर सारे स्ट्रीट लैम्प्स, पूर्णरूपेण पसर चुकी गोधूलि के प्रभाव को कम करने का असफल प्रयास कर रहे थे। सड़क और फूटपाथ पर सन्नाटा था, पर पार्क में  बेंचों-कुर्सियों पर बैठीं या हिलती डुलती सी कई अस्पष्ट आकृतियाँ उस हलके से प्रकाश में मौजूद थीं, जैसे वे सभी उस उदास धुंधलके में समाहित हों ।  

      गोर्ट्स्बी को यह दृश्य भा रहा था क्योंकि वह उसके वर्तमान मूड से मेल खा रहा था। उसके अनुसार  गोधूलि हारे हुए लोगों का समय था; और ऐसे पुरुष और महिलाएं जो लड़ लड़ कर हार गये, जिन्होंने अपनी फूटी किस्मत और मृत आशाओं को यथा संभव लोगों की निगाहों से छुपा कर रखा था, इसी समय निकलते हैं, जिससे उनके झुके कंधों, मलिन वस्त्रों और, दुखी आँखों को न कोई देख पाए और न कोई प्रश्न करे। झाड़ियों और रेलिंग के यवनिका के उस पार चमकीले प्रकाश और ट्रैफिक का शोर शराबा था। गोधूलि में से प्रकाश बिखेरती खिडकियों की कतारें दीख पड़ रही थीं। यह  उन लोगों के बसेरे थे जो अपने जीवन संघर्ष में विजयी रहे थे, या कम से कम अभी हार तो नहीं ही माने थे। उस बेला में गोर्ट्स्बी अपने को हारे हुओं में ही रख रहा था । पैसे उसके लिए समस्या नहीं थे ; यदि वह चाहता तो वह आराम से उस प्रकाश और शोर के मार्ग पर निकल जाता और उन सबके  बीच स्थान ग्रहण कर लेता जो अपनी सम्पन्नता का आनन्द उठा रहे थे । वह तो किसी एक अलग, अनिर्वचनीय से उद्देश्य में असफल हो गया था। उसका हृदय दुःख और नैराश्य से भरा था और उसे उस अँधेरे के अपने आस पास के साथियों को देखने-समझने और वर्गीकृत करने में किसी दोषदर्शी सा संतोष प्राप्त हो रहां था ।

            बेंच पर उसके बगल में एक वृद्ध से सज्जन बैठे थे। उनके हाव-भाव बता रहे थे कि चुनौतियों से लड़ने की शक्ति उनमें अब न थी । उनके कपडे ठीक-ठाक से लग रहे थे, परन्तु इतने अच्छे भी नहीं, कि उनसे सम्पन्नता झलके। एक ऐसा इंसान जो अकेले ही रोने को मजबूर हो। जब वो जाने के लिए उठे तो गोर्ट्स्बी ने मन में सोचा कि यह वापस अपने घर ही जा रहे होंगे जहां इन्हें कोई पूछता ही नहीं होगा, या फिर, किसी ऐसे सूने से डेरे पर,  जिसका किराया चुका पाना ही अब इनकी एक मात्र आकांक्षा होगी । धीरे -धीरे वे अँधेरे में आँखों से ओझल हो गए, और तुरंत ही उनके स्थान पर एक नवयुवक आ कर बैठ गया । उसके कपडे तो काफी अच्छे थे परन्तु भाव-भंगिमा में वह अपने पूर्ववर्ती वृद्ध सज्जन जितना ही दुखी लग रहा था। बैठते-बैठते उसके मुंह से कुछ अपशब्द भी निकले,  जिस से गोर्ट्स्बी को यकीन हो गया की यह भी अपने हालात से खुश नहीं था

     “तुम कुछ अच्छे मूड में नहीं लगते ?”, गोर्ट्स्बी ने कहा। उसे लगा कि उस युवक की उस मुखर  अभिव्यक्ति में यह अपेक्षित था कि उसका संज्ञान लिया जाय
     युवक ने कुछ अजीब तरीके से गोर्त्स्बी को देखा......... अगर आपकी भी स्थिति मेरे जैसी हो तो आप भी अच्छे मूड में नहीं रहेंगे, उसने कहा मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी मूर्खता की है।

अच्छा?”... गोर्त्स्बी ने कहा। अत्यंत निरपेक्ष भाव से।

युवक ने कहा मैं आज ही यहाँ आया मुझे बर्कशायर स्क्वायर में पैटागोनियन होटल में रुकना था, लेकिन यहाँ आ कर पता चला की उसे तोड़ कर उसकी जगह एक थिएटर बना दिया गया है। खैर टैक्सी वाले ने मुझे एक और होटल का पता दिया और वहाँ पहुँचते ही मैंने अपने लोगों को एक पत्र लिखा, जिसमे उस नयी जगह का पता दिया था उसके बाद मैं एक साबुन की टिकिया खरीदने निकल गया। असल में,  जल्दबाजी में अपने सामान में साबुन की टिकिया रखना भूल गया था, और मुझे होटल का साबुन पसंद नहीं है थोड़ी देर इधर उधर घूमने और एक ड्रिंक लेने के बाद मैं जब वापस जाने के लिए सोचा तो अचानक मुझे एहसास हुआ कि मुझे तो अपने होटल का नाम याद ही  नहीं, और न ही वह सड़क जिस पर वह  होटल था अच्छी मुसीबत हो गयी है मेरे लिए एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिस का लन्दन में कोई दोस्त या परिचित न हो !  हाँ,  मैं अपने परिवार को टेलीग्राम भेज तो सकता हूँ, होटल के पते के लिए, लेकिन मेरा पत्र तो कल से पहले वहाँ पहुंचेगा नहीं अब स्थिति यह है है कि मेरे पास पैसे ही नहीं है । होटल से एक शिलिंग ले कर निकला था जो साबुन की टिकिया और ड्रिंक में ही खत्म हो गए, और अब बस जेब में दो पेन्स ले कर टहल रहा हूँ पता नहीं रात कैसे गुज़र होगी!

वृत्तांत के बाद एक भावपूर्ण मौन ।

कुछ क्षणों के बाद उसने कहा, आप सोच रहे होंगे की मैंने एक असंभव सी कहानी बना डाली है।उसकी आवाज़ में थोड़ा  रोष सा था

“न, न, बिलकुल भी असंभव नहीं यह।” गोर्ट्स्बी ने गंभीरता से कहा। “मुझे याद है कि एक बार मैंने भी कुछ ऐसा ही किया था एक अन्य देश की राजधानी में। और उस घटना के दौरान तो हम दो लोग थे जो उसे और उल्लेखनीय बनाता है । संयोग से हमें यह याद था कि हमारा होटल एक नहर के किनारे था, और जैसे ही ढूंढते ढूंढते हम उस नहर के पास पंहुचे, हम अपना होटल पा गये”।

“किसी विदेशी शहर में तो मेरे लिए थोड़ा और आसान होता । दूतावास जाता और वहाँ से मदद मिल जाती। लेकिन अपने ही देश के किसी शहर में ऐसी समस्या में पड़ना तो और भी कठिन है । और अब तो यदि किसी सहृदय व्यक्ति ने मुझे कुछ उधार दे दिया तब तो ठीक है , अन्यथा आज की रात तो नदी किनारे सोना पड़ेगा। पर फिर भी, मुझे यह अच्छा लगा की कम से कम आपने यह तो माना की मेरे साथ घटी घटना असंभव नहीं है

इस अंतिम वाक्य में एक गर्मजोशी सी थी। शायद इस उम्मीद में कि वह अपेक्षित सहृदयता गोर्ट्स्बी में ही हो।

हाँ हाँ, बिलकुल सही, गोर्ट्स्बी ने धीरे धीरे बोला। पर तुम्हारी कहानी की कमज़ोर कड़ी यह है की तुम्हारे पास मुझे दिखाने को वह साबुन की टिकिया नहीं है।
युवक को जैसे झटका लगा, वह अपने ओवरकोट की जेबें टटोलने लगा, और उछल कर खड़ा हो गया। लगता है कि मैंने अपनी साबुन की टिकिया भी गुम कर दी।, उसने भुनभुनाते हुए कहा।

क्या तुम्हे नहीं लगता कि” गोर्ट्स्बी ने कहा, एक ही शाम, होटल और साबुन की टिकिया, दोनों ही गुम कर देना, कुछ ज्यादा ही लापरवाही है?”

पर युवक यह सब सुनने के लिए नहीं रुका। वह तुरंत ही अपना  सर ऊँचा किये हुए आगे निकल चुका था।

अफ़सोस!गोर्ट्स्बी ने सोचा। साबुन की टिकिया लेने निकलना, यही एक मात्र विश्वसनीय हिस्सा था उसकी कहानी का, लेकिन उस में इतनी दूरदर्शिता नहीं थी की वह एक साबुन की टिकिया अपने पास रख लेता- एक अच्छी तरह पैक की हुयी साबुन की टिकिया- जैसे कोई दुकानदार पैक कर के देता है। और फिर, ऐसे काम में तो दूरदर्शिता और सावधानी अत्यंत ही आवश्यक है , सोचते हुए गोर्ट्स्बी भी चलने के लिए उठा; कि तभी उसकी आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं । नीचे बेंच के पास कागज में पैक एक अंडाकार वस्तु थी, वैसी ही जैसे कोई दक्ष दुकानदार पैक करता है।  “और यह साबुन की टिकिया के अतिरिक्त और क्या हो सकती थी , जो कि निश्चित ही  बेंच पर बैठते समय उस युवक के कोट से गिर गयी होगी” - गोर्ट्स्बी  का मन ग्लानि से भर गया। वह तेज़ी से उस ओवरकोट वाले युवक की खोज में उस दिशा में चल पड़ा जिधर वह गया था। अँधेरा बढ़ गया था और खोजते खोजते गोर्ट्स्बी भी निराश हो चुका था कि तभी उसने उस युवक को एक सड़क के किनारे देखा । ऐसा लग रहा था की वह यह  सोच नहीं पा रहा था कि  बाएं जाए या दायें। जब गोर्ट्स्बी  ने उसे पुकारा तो वह  लगभग आक्रामक सा हो कर उसकी और मुड़ा।

तुम्हारी कहानी का वह  अहम गवाह मिल गया हैगोर्ट्स्बी ने कहा, और साबुन की टिकिया उसकी और बढ़ा दी। शायद ये तुम्हारी कोट की जेब से गिर गयी थी जब तुम झटके से बेंच पर बैठे। मेरे व्यवहार और अविश्वास के लिए मुझे माफ कर दो, पर सचमुच उस समय तुम्हारे पक्ष में कुछ भी नहीं था। और जब यह टिकिया तुम्हारी सत्यता की गवाही दे रही है तो मुझे उसके पक्ष में ही निर्णय लेना होगा। मेरे विचार से एक गिन्नी से तो तुम्हारा काम चल जाएगा --

नवयुवक ने झटपट उस गिन्नी को अपनी जेब में डाल लिया ।

यह है मेरा कार्ड जिस पर मेरा पता दिया है। इस सप्ताह किसी भी दिन तुम मुझे वह गिन्नी लौटा देना, गोर्ट्स्बी ने कहा। और हाँ, साबुन की टिकिया को अब गुम नहीं करना, यह तुम्हारी अच्छी दोस्त साबित हुई है।

“सौभाग्य ही था जो यह आपको मिल गयी।“ युवक ने कहा, और शुक्रिया अदा करते हुए वह नाइट्सब्रिज की दिशा में तेजी से चल दिया।

बेचारा! सचमुच बड़ी मसीबत में था।, गोर्ट्स्बी ने स्वयं से कहा। और मेरे लिए भी यह एक सबक है कि मैं अपने आप को ज्यादा होशियार न समझा करूँ।” 

गोर्ट्स्बी फिर से पार्क की उसी बेंच की तरफ चल दिया, और जैसे ही वहाँ पहुंचा उसने देखा  कि  युवक से पहले जो वृद्ध सज्जन उस बेंच पर बैठे थे वे बेंच के नीचे कुछ ढूंढ रहे हैं।

क्या आपका कुछ गुम हो गया है?” गोर्ट्स्बी ने पूछा।

जी हाँ , श्रीमानवृद्ध सज्जन ने कहा। एक साबुन की टिकिया।



       अनुवाद – डॉ स्कन्द शुक्ल
















Sunday, September 8, 2019

One Rupee - Story broadcast on AIR Prayagraj 8-9-19



All of us felt so glad when the huge building loomed up before us. The tiring steep climb had drained us completely.  It really looked grand in its expanse and size, just like its name- Hotel Grand. Overlooking the famed Mall Road, it gave a beautiful view of the verdant Shimla hills.  Full of giant chinaar and deodars trees, the hotel had put up boards warning the guests not to entertain monkeys which were there in the premises in large numbers.  After settling in the huge suite we decided to roam out.  A nice cup of tea was what we required to energize us.  The hotel one had been tepid and tasteless.

As one descended the hotel complex, the immediate street below was lined with small kiosks with a varied fare. Having a penchant for exploring foods typical of a place, I find the street side and the unbranded eateries the best for it. The fact is that even a simple thing as aloo paratha tastes differently in the different parts of the country.   Our eyes however searched for a tea-stall, and there was one, a few steps away.
The sixty year something shopkeeper welcomed us with a smile. Warmth oozed out as he lovingly asked- ‘Tea? The parathas are not yet ready. I am going to knead dough for them.’  ‘Yes, two cups of tea’, I said. The kids had their chips packets to munch on.   

A large wooden box with an aluminum sheet top doubled up both as a store and a kitchen countertop. There was a kerosene pressure stove on the side.  A big aluminum bhagauna with milk in it, a pan for preparing tea, a rolling pin and, an iron griddle for frying parathas stood on the countertop.  On the side were a few plastic jars with eatables like freshly prepared   mathri, a few disposable paper cups and glasses for serving tea and, a weighing scale.  But the most interesting thing along with these things was a gun and a sling shot!

‘Why this?’ I asked pointing to the gun.  ‘Is it a toy?’

‘No babu’, he replied as he grated ginger to put in the tea-pan. ‘It isn’t a toy-gun. It shoots rubber pellets. This is to scare the monkeys away if they don’t stay away with the sling shot.’

We could hear the shrill cries of the monkeys as they ran, played and fought among themselves on the corrugated roofs of the nearby buildings and the hotel above.  ‘There’s one’, my younger son said pointing to one lurking behind a huge deodar tree on the mountain side at the back of the tea stall owner...  He picked up the gun and gave it to my son. ‘Take this and point it towards it’, he said. ‘It has no pellets in it because having had the taste of this earlier, now they scamper away by the mere sight of this gun’, he laughed.  And true! As soon as the monkey saw the gun it immediately leapt away. 

The tea was nice and endearing and so was the ambience.  We became its regular for the next few days of our sojourn.

It was the third day of our stay. Early morning.  The quiet of the place broken only by the sounds of the swaying branches of the cedar and poplar in the mountain winds, twitter of the birds and, the screech of the monkeys. The hills were waking up for work, while the tourist, perhaps, still enjoying the languor of their warm beds.  My wife and I were sitting on a makeshift bench, a plank of wood resting on two rocks, waiting for our tea as the stove was being pumped to be lit. The shop had already been spruced up for the day.  The distant hills were draped in mist. The Shimla railway station was visible and we could see an engine coughing up puffs of smoke and sounding its horn as it lunged with all its strength. Soon the morning trains from Kalka would be chugging in and I could imagine the porters on the platform waiting anxiously for the passengers to strap their heavy luggage on their back and bring them up the steep mountain-roads.

A group of about six people suddenly descended on the stall.  They all had their luggage with them and I could gather from their talk that they were on their way down to board their train.

‘Can we have tea?’ one of them said.

‘Yes of course’, the shop-owner replied. ‘Give me a moment. I am already preparing for those two persons. I’ll make fresh tea for you all after this’.

‘We are in a hurry', he said impatiently and looked around, perhaps to see if there was any other tea stall nearby. Unfortunately there wasn’t.

‘We will wait. Please serve them first ‘, I said to the shop owner from my perch.  I thought they had their train to catch; besides I was enjoying myself, immersed in my surroundings and I could wait in that serenity forever.

They were served their tea and I busied myself again in the quietude as our tea was getting prepared.

My reverie was broken by a slight commotion.  The shop keeper was holding a note of rupees 500 and was asking for a smaller denomination note. None in the party seemed to have a smaller note than that.  The shop owner said that it was early morning and they were the first customers of the day, so how could he have change for that big amount of money. But finding them adamant he started rummaging in every nook and cranny. Finally he could muster the required change in various denomination notes and some coins. 

The young man painstakingly counted  it and then remarked- ‘It’s one rupee less’. The shop owner asked him to take that one rupee later in the day because he didn’t have it at the moment. ‘But I am going to board the train’, he replied. And then suddenly a coin lurking behind the stove caught the shop owner’s eye and he gave it to him.

It was later in the afternoon that we again got a chance to go to the stall. We were done for the day a little too early in our sightseeing and decided to get back to our hotel to rest.  Climbing up the hill, a nice cup of tea was the thing we desired. The shop was empty of customers and instead of the elderly gentleman we were wont to see there was an elderly lady with that same warm smile spread all over the creases on her chubby face.

‘Yes?’ she asked affectionately. ‘Tea for the two of us’, my wife said. ‘Okay’, she said and set about the preparation.

‘Where has uncle gone? Do you keep the shop in the afternoon?’ my wife asked.
‘No, no’, she replied. ‘Actually he has gone to fetch some material for the shop and that’s why I am here’.

‘Won’t you too have tea?’ she asked my kids.

‘No, we don’t drink tea’, the younger one replied.

‘Oh! That’s so good. Tea is not good for children’, she smiled to them.

She handed over two paper cups of tea to us in a short while and then took out a sizeable helping of fresh namak para from a punnet on a paper plate and gave it to the kids.  ‘It was prepared just half an hour ago. You will love it’, she said.

She asked their age and class and where were they from as she carried on her work.
The paras were really crispy and tasty as we also partook a little.

‘How much? , I asked the lady handing her a fifty rupee note after we had finished our tea.

‘Twenty’, she said as she returned me rupees thirty.

‘You forgot to add the paras', I replied.

‘What paras?’ she a smiling frown. ‘I have grandsons of their age. How could I let them just sit having nothing while you too had you tea? That was from me’

I seemed to hear the bells ringing at the Shyamla Devi temple below.

Dr( Skand Shukla)




Wednesday, August 7, 2019

English teaching at primary level in India– Cultural Interference (published in HT Lko 5-8-19)


English teaching at primary level in India– Cultural Interference
(published in HT Lko 5-8-19)

It goes without saying that a language is embedded in culture. Let’s take the simple examples of two very common words – pranam and shanti. Can the whole matrix of these words be translated into English? The English words ‘greetings’ or ‘peace’ are but poor approximations to pranam and shanti. Even a  poet-philosopher of the stature of T S Eliot failed to get an English equivalent and used the Sanskrit word as it is – ‘Shantih shantih shantih’ in his great poem – The Waste Land. A language, thus, cannot import the subtle connotations of another language.

The effect of cultural interference is clearly felt in the teaching of English in a vernacular setting such as the state of U.P.  The fact is that in the rural hinterlands English is not even the second language; it is practically the third language, as the local dialects (Awadhi, Bhojpuri, Braj…) are the first and, Khadi Hindi (standard Hindi) is the second language. In this scenario, where even the teacher is essentially a Hindi speaking person (though may be knowledgeable in English); the language-reinforcement crisis for the child is so evident.

Culture and communication are intertwined and it determines how people encode messages, the meanings they have for messages and, how they get interpreted.  For instance, as different from the West, in our country,  a teacher or elder is not addressed by his name/surname, instead, family friends are identified through some relationship – 'Uncle', 'Aunty', 'Chacha', 'Mama' etc. and, in Hindi, there are two different ways of addressing an elder and the younger – 'Aap' (for former) and 'Tum' (for younger). 

Associative contexts in which a word is used in a place might evoke a different understanding of that word. The word 'darling', I remember, raised shy smiles among us when a teacher addressed a student lovingly by this term. As 10 years old, in the early 80s we had heard it being used in the Hindi films in only one connotation. The various nuances of meaning given to the word ‘sexy’, ranging from obscenity to aesthetics, are only a matter of one’s cultural environs. Can someone in India, whose experience of a summer’s day is of a scorching sun and hot loo, compare his beloved like Shakespeare does in his sonnet- ‘Shall I compare thee to the summer’s day’!

All our educational philosophers have been advocates of primary learning in our mother tongues.  Tagore, in his celebrated essay “The Centre of Indian Culture”, wrote that a foreign language makes education 'nebulously distant and unreal, (because it is) so detached from all our associations of life, so terribly costly to us in time, health and means, and yet so meager of results.’

Researches all over have showed that the second language can be best learned at an older age.  Broadly speaking, different life stages give us different advantages in language learning. As babies, we have a better ear for different sounds and thus we don’t learn a language but we acquire it. As adults, we have longer attention spans and crucial skills like literacy that allow us to continually expand our vocabulary, even in our own language. This is known as ‘explicit learning’: studying a language in a classroom with a teacher explaining the rules. Young children are very bad at explicit learning, because they don’t have the cognitive control and the attention and memory capabilities while adults are much better at that.

The fact is that English teaching in a vernacular scenario cannot be divorced from its vernacular ambience. Both our teachers and books are to be aware of this.  We should remember Tagore’s caution -  ‘The diversity of our languages should not be allowed to frighten us; but we should be warned of the futility of borrowing the language of our culture from a far-away land, making stagnant and shallow that which is fluid near its source.’

 Our English teaching has to go side by side along our vernacular and the content has to be drawn as much as possible from the children’s everyday environment. Only this can help in an effective teaching-learning of English and also let the mother tongue thrive. 

Dr Skand Shukla
(Officer of the U.P. Education Services )




Sunday, April 7, 2019


द्वंद्व

(25/3/19 को पुनर्नवा , दैनिक जागरण में प्रकाशित)

कैच ट्वेंटी टू और फज़ी लॉजिक जैसे शब्दों जिनसे पढ़ाई के समय साक्षात्कार हुआ था, उनके अर्थ उसके बाद के जीवन-अनुभव हमें समझाते चले हैं। चेखोव और साकी जैसों की कहानियों सी घटनाएं जब हमारे सामने असल ज़िंदगी में घटित होती लगती हैं तब हम हतप्रभ से, बेकेट के उन प्रसिद्द पात्रों की तरह किसी गोडो के आगमन की तरह सही निर्णय के लिए प्रतीक्षा करते रह जाते हैं । यह प्रसंग भी कुछ ऐसा ही था। 

कई वर्ष हुए। एक अति-पिछड़े जनपद में शिक्षाधिकारी के रूप में समाज, परिवेश और मानव स्वभाव के नित नए अनुभवों से सामना हो रहा था और, इनके बारे में ज्ञानार्जन भी। उम्र और सरकारी सेवा दोनों का ही नयापन ऊर्जा और आदर्शों को बनाए रखने में अपना सहयोग दे रहे थे। सभी के लिए शिक्षा उपलब्ध कराने के अभियान के प्रारम्भिक वर्ष थे और इस दिशा में सभी संभव यत्न किये जा रहे थे। इन्हीं में से एक थी विद्यालयों में स्थाई अध्यापकों के सहयोग के लिए पंचायत-वार पैरा-टीचर्स की व्यवस्था। इससे, उस समय प्रशिक्षित और पूर्णकालिक अध्यापकों की अत्यधिक कमी को दूर कर, अब तक शिक्षा से अछूते परिवारों के नव-नामांकित बच्चों को शिक्षक उपलब्ध कराना ही एक मात्र उद्देश्य न था। नयी पीढी को उसके सामाजिक दायित्यों का भान कराना, उनसे इसके लिए सहयोग लेना और, इन्हें इसके प्रति मानदेय के माध्यम से उपार्जन उपलब्ध कराते हुए उनमें अपने व्यक्तित्व का अहसास कराना भी इसमें सम्मिलित था। और इसीलिए, इनके चयन में महिलाओं के लिए विशेष रूप से स्थान आरक्षित थे।  यद्यपि यह पद न तो स्थाई था और न ही इसके लिए मिलने वाला पारिश्रमिक किसी के जीवन-यापन योग्य, फिर भी बेरोजगारी  के मारे ग्रामीण युवाओं में इसके लिए भी गला काट प्रतिद्वंदिता थी।

मैं उस दिन तड़के ही एक जांच पर निकल गया था। शहर में स्थित जनपद मुख्यालय से लगभग साठ किलोमीटर दूर। दोपहर हो चली थी जब वापस अपने कार्यालय पँहुचा। मुलाकातियों और शिकायतकर्ताओं की भारी भीड़ एकत्रित थी। देख कर मन खिन्न हो गया। वापसी के रास्ते में  सोच रहा था कि शायद सुबह से मुझे अनुपस्थित पाकर कार्यालय आये हुए लोग अब तक लौट गये हों और मैं कुछ देर चैन से फ़ाइलें निबटा लूँगा। असल में ये प्रशासनिक पद भी बड़े विरोधाभासी भाव उत्पन्न करते हैं। अगल बगल लोग घेरे न हों तो व्यक्ति स्वयं को महत्वहीन लगने लगता है, और यदि हर समय घेरे रहें तो मन उकताता है और अपने लिए भी कुछ समय के लिए व्याकुल रहता है।  
अपने चैम्बर में जाते समय देखा कि मेरे स्टेनो से उसके कक्ष में एक लड़की बहस में उलझी थी। कुर्सी पर बैठते ही चपरासी ने एक एक करके लोगों को अन्दर भेजना शुरू किया। मैं उनकी बातें सुनता और उनके प्रत्यावेदनों को लेकर यथावश्यक मार्किंग कर देता। कुछ ही लोगों के बाद उस लड़की ने प्रवेश किया। प्रवेश करते ही वह फट पड़ी। मेरे अधीनस्थ स्टाफ और अधिकारी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए उसने कहा कि उसके साथ अन्याय हो रहा है और उसे कई दिनों से दौड़ाया जा रहा है। उसके तमतमाए तेवर को देखते हुए मैंने उसे बैठने को कहा और चपरासी के लिए घंटी बजायी। चपरासी को उसके लिए पानी लाने को कहा। दबे रंग और तीखे नाक-नक्श की वह युवती 18-19 वर्ष की रही होगी। वह किसी निम्न-वर्गीय परिवार की लग रही थी पर उसमें आत्मविश्वास स्पष्ट झलक रहा था।

कुछ क्षणों में जब वह थोड़ा सयंत हुई तब मैंने उसे विस्तार से अपनी बात बताने को कहा। पता चला कि उसने अपनी पंचायत में स्थित प्राथमिक विद्यालय में पैरा-टीचर पद के लिए आवेदन कर रखा था। सभी आवेदनकर्ताओं में उसका स्थान मेरिट में प्रथम था। मेरिट को तैयार हुए यद्यपि काफी समय बीत गया था परन्तु मेरिट-सूची और उसका चयन-प्रस्ताव विकास खंड स्तर से जनपद स्तर, यानी मेरे कार्यालय को, स्वीकृति के लिए नहीं भेजा जा रहा था।
‘क्या फर्क पड़ता है उस से ?’, मैंने कहा। ‘आखिर जब एक बार मेरिट–सूची तैयार हो ही गयी है तो चाहे जितने दिन लगें तुम्हारा स्थान तो प्रथम ही रहेगा। और इस कारण चयन भी पक्का होगा’, मैंने उसे आश्वस्त करना चाहा।

‘न,न। ऐसा नहीं है।, उसने कहा। ‘यह सब एक रणनीति के तहत हो रहा है सर।
‘मतलब?’
‘मेरा विवाह हो चुका है, सर। और मेरा गौना बस दो-एक महीने में ही होना है।’
‘तो?’, मैंने पूछा । मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।
‘अरे सर! ये लोग इसी बात का तो इंतज़ार कर रहे हैं; कि मेरा गौना हो, और मैं अपनी ससुराल चली जाऊं। यह होते ही मैं इस ग्राम-पंचायत की नहीं मानी जाऊंगी और मेरी अर्हता इस विद्यालय के लिए नहीं रह जायेगी। इस तरह मेरा अभ्यर्थन अमान्य कर दिया जाएगा और मेरिट में मेरे बाद वाले व्यक्ति को चुन लिया जाएगा।

‘ओह! तो यह बात है , मैंने अब कुछ कुछ स्थिति को समझते हुए कहा । 

‘आपके नीचे के लोगों ने निश्चित पैसे खाए हैं सर। वे झूठ- मूठ की शिकायतों के बहाने इसमें देरी कर रहे हैं। मैं नौकरी करना चाहती हूँ। मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूँ। बड़ी कठिनाई से मैंने इंटर तक की पढ़ाई पूरी की है । कुछ आमदनी होगी तो आगे भी इसे जारी कर सकूंगी। पैसे के लिए किसी का मुँह तो नहीं देखना होगा। वह रुआँसी हो गयी थी ।

मैंने उसे आश्वस्त किया कि कुछ भी गलत नहीं होने दिया जायेगा और, उसके सामने ही, इस केस से जुड़े लोगों को सभी अभिलेख के साथ अगले दिन उपस्थित होने के निर्देश दे दिए ।

देर शाम जब आवास पंहुचा तो कपडे बदल कर अभी चाय हाथ में लिया ही थी कि नौकर ने बताया कि कोई मिलना चाहता है। थकान से चूर, मन चिड़चिड़ा गया। मैंने कहा कि उस से कह दे कि अगले दिन कार्यालय में मिले। नौकर जानता था कि मैं वैसे भी किसी से सरकारी काम के लिए आने वाले से आवास पर नहीं मिलता था, फिर भी उसने आग्रह के स्वर में कहा , ‘साहब मिल लें। शायद बहुत जरूरी काम है । बहुत समझाया कि घर आप नहीं मिलते फिर भी जिद्द पकड़ कर बैठा है । आया भी कहीं दूर से लगता है 

‘ठीक है, बुलाओ उसे। मिल ही लेता हूँ’, कुछ सोच के मैंने कहा। जल्दी जल्दी  चाय ख़त्म करके बरामदे में आया तो देखा कि चालीस के कुछ ऊपर का एक व्यक्ति खड़ा है। मुझे देखते ही वह पैर छूने के लिए झुका, और बोला - ‘साहब मैं उस लड़की का पिता हूँ जो आज आपसे कार्यालय में मिली थी
‘तो? उस संबंध में मैंने सारे रिकॉर्ड कल मंगवाएं तो हैं। अब आज आप क्यों परेशान कर रहे?’, मैंने कुछ नाराज़गी से कहा।
‘असल में सर, मैं कुछ और विनती ले कर आया हूँ’, उसने याचना के स्वर में कहा। ‘मैं नहीं चाहता हूँ कि उस पत्रावली पर आप तुरंत निर्णय लें

मुझे विस्मित होते देख उसने कहा- ‘मैं आपको सब बताता हूँ सर। इसमें आपके नीचे के अधिकारी अथवा स्टाफ की कोई गलती नहीं है। मैंने ही उनसे कहा था कि वे कोशिश करें कि मेरी बिटिया का चयन न होने पाए। आप सोच रहे होंगे कि बाप होकर मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? मजबूरी है साहब, मजबूरी। हाड़ तोड़ मेहनत और पेट काट कर अपनी तीन बेटियों को पढाया है। यह बड़ी है सबसे। पढाई में भी बहुत अच्छी। लेकिन साहब रहना तो समाज में ही है, शादी –ब्याह तो करना ही था। पिछले साल कर्जा लेकर पास के गाँव में इसकी शादी कर दी थी। इसी गर्मी के लिए गौना तय हुआ है। गौने बाद तो इसे दूसरे घर जाना ही है । वह नौकरी के लिए जिद्द ठाने है लेकिन उसे अभी ज़माने की समझ ही कितनी है। मैं पिता हूँ उसका और उसके अच्छे के लिए ही तो सोचूंगा। सोचिये साहब, यदि यह नौकरी पा भी गयी तो भी आखिर कितने दिन यहाँ कर पाएगी! सूची में दुसरे नम्बर पर एक लड़का है। उसी ने हमसे कहा था कि यदि इस पद को मेरी बिटिया छोड़ दे तो उसका चयन हो जाएगा। इसके बदले में साहब, उसने गौने के लिए मेरी कुछ मदद करने को कहा है अब आप ही बताइये साहब मैं करूँ तो क्या करूँ!’,वह बोलते बोलते रोने लगा था
और मैं? एक पिता का अपनी पुत्री के प्रति ममत्व, सामाजिक दायित्वों के प्रति उसकी विवशता और, एक नवयुवती के स्वप्न के मध्य अनिर्णय की स्थिति में निस्तब्ध खड़ा था
 डॉ स्कन्द शुक्ल 
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