द्वंद्व
(25/3/19 को पुनर्नवा , दैनिक जागरण में प्रकाशित)
(25/3/19 को पुनर्नवा , दैनिक जागरण में प्रकाशित)
कैच ट्वेंटी टू और फज़ी लॉजिक जैसे शब्दों जिनसे पढ़ाई के समय साक्षात्कार हुआ था,
उनके अर्थ उसके बाद के जीवन-अनुभव हमें समझाते चले हैं। चेखोव और साकी जैसों की
कहानियों सी घटनाएं जब हमारे सामने असल ज़िंदगी में घटित होती लगती हैं तब हम
हतप्रभ से, बेकेट के उन प्रसिद्द पात्रों की तरह किसी गोडो के आगमन की तरह सही
निर्णय के लिए प्रतीक्षा करते रह जाते हैं । यह प्रसंग भी कुछ ऐसा ही था।
कई वर्ष हुए। एक अति-पिछड़े जनपद
में शिक्षाधिकारी के रूप में समाज, परिवेश और मानव स्वभाव के नित नए अनुभवों से
सामना हो रहा था और, इनके बारे में ज्ञानार्जन भी। उम्र और सरकारी सेवा दोनों का
ही नयापन ऊर्जा और आदर्शों
को बनाए रखने में अपना सहयोग दे रहे थे। सभी के लिए शिक्षा उपलब्ध कराने के अभियान
के प्रारम्भिक वर्ष थे और इस दिशा में सभी संभव यत्न किये जा रहे थे। इन्हीं में
से एक थी विद्यालयों में स्थाई अध्यापकों के सहयोग के लिए पंचायत-वार पैरा-टीचर्स
की व्यवस्था। इससे,
उस समय प्रशिक्षित और पूर्णकालिक अध्यापकों की अत्यधिक कमी को दूर कर, अब तक
शिक्षा से अछूते परिवारों के नव-नामांकित बच्चों को शिक्षक उपलब्ध कराना ही एक
मात्र उद्देश्य न था। नयी पीढी को उसके सामाजिक दायित्यों का भान कराना, उनसे इसके
लिए सहयोग लेना और, इन्हें इसके प्रति मानदेय के माध्यम से उपार्जन उपलब्ध कराते
हुए उनमें अपने व्यक्तित्व का अहसास कराना भी इसमें सम्मिलित था। और इसीलिए, इनके
चयन में महिलाओं के लिए विशेष रूप से स्थान आरक्षित थे। यद्यपि यह पद न तो स्थाई था और न ही इसके लिए
मिलने वाला पारिश्रमिक किसी के जीवन-यापन योग्य, फिर भी बेरोजगारी के मारे ग्रामीण युवाओं में इसके लिए भी गला काट
प्रतिद्वंदिता थी।
मैं उस दिन तड़के ही एक जांच पर
निकल गया था। शहर में स्थित जनपद मुख्यालय से लगभग साठ किलोमीटर दूर। दोपहर हो चली
थी जब वापस अपने कार्यालय पँहुचा। मुलाकातियों और शिकायतकर्ताओं की भारी भीड़
एकत्रित थी। देख कर मन खिन्न हो गया। वापसी के रास्ते में सोच रहा था कि शायद सुबह से मुझे अनुपस्थित पाकर
कार्यालय आये हुए लोग अब तक लौट गये हों और मैं कुछ देर चैन से फ़ाइलें निबटा
लूँगा। असल में ये प्रशासनिक पद भी बड़े विरोधाभासी भाव उत्पन्न करते हैं। अगल बगल
लोग घेरे न हों तो व्यक्ति स्वयं को महत्वहीन लगने लगता है, और यदि हर समय घेरे
रहें तो मन उकताता है और अपने लिए भी कुछ समय के लिए व्याकुल रहता है।
अपने चैम्बर में जाते समय देखा कि
मेरे स्टेनो से उसके कक्ष में एक लड़की बहस में उलझी थी। कुर्सी पर बैठते ही चपरासी
ने एक एक करके लोगों को अन्दर भेजना शुरू किया। मैं उनकी बातें सुनता और उनके
प्रत्यावेदनों को लेकर यथावश्यक मार्किंग कर देता। कुछ ही लोगों के बाद उस लड़की ने
प्रवेश किया। प्रवेश करते ही वह फट पड़ी। मेरे अधीनस्थ स्टाफ और अधिकारी पर
भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए उसने कहा कि उसके साथ अन्याय हो रहा है और उसे कई
दिनों से दौड़ाया जा रहा है। उसके तमतमाए तेवर को देखते हुए मैंने उसे बैठने को कहा
और चपरासी के लिए घंटी बजायी। चपरासी को उसके लिए पानी लाने को कहा। दबे रंग और
तीखे नाक-नक्श की वह युवती 18-19 वर्ष की रही होगी। वह किसी निम्न-वर्गीय परिवार
की लग रही थी पर उसमें आत्मविश्वास स्पष्ट झलक रहा था।
कुछ क्षणों में जब वह थोड़ा सयंत
हुई तब मैंने उसे विस्तार से अपनी बात बताने को कहा। पता चला कि उसने अपनी पंचायत
में स्थित प्राथमिक विद्यालय में पैरा-टीचर पद के लिए आवेदन कर रखा था। सभी
आवेदनकर्ताओं में उसका स्थान मेरिट में प्रथम था। मेरिट को तैयार हुए यद्यपि काफी
समय बीत गया था परन्तु मेरिट-सूची और उसका चयन-प्रस्ताव विकास खंड स्तर से जनपद
स्तर, यानी मेरे कार्यालय को, स्वीकृति के लिए नहीं भेजा जा रहा था।
‘क्या फर्क पड़ता है उस से ?’,
मैंने कहा। ‘आखिर जब एक बार मेरिट–सूची तैयार हो ही गयी है तो चाहे जितने दिन लगें
तुम्हारा स्थान तो प्रथम ही रहेगा। और इस कारण चयन भी पक्का होगा’, मैंने उसे
आश्वस्त करना चाहा।
‘न,न। ऐसा नहीं है।’, उसने कहा। ‘यह सब एक रणनीति के
तहत हो रहा है सर।’
‘मतलब?’
‘मेरा विवाह हो चुका है, सर। और
मेरा गौना बस दो-एक महीने में ही होना है।’
‘तो?’, मैंने पूछा । मेरी समझ में
कुछ नहीं आ रहा था ।
‘अरे सर! ये लोग इसी बात का तो
इंतज़ार कर रहे हैं; कि मेरा गौना हो, और मैं अपनी ससुराल चली जाऊं। यह होते ही मैं
इस ग्राम-पंचायत की नहीं मानी जाऊंगी और मेरी अर्हता इस विद्यालय के लिए नहीं रह
जायेगी। इस तरह मेरा अभ्यर्थन अमान्य कर दिया जाएगा और मेरिट में मेरे बाद वाले
व्यक्ति को चुन लिया जाएगा।’
‘ओह! तो यह बात है’ , मैंने अब कुछ कुछ स्थिति को समझते
हुए कहा ।
‘आपके नीचे के लोगों ने निश्चित
पैसे खाए हैं सर। वे झूठ- मूठ की शिकायतों के बहाने इसमें देरी कर रहे हैं। मैं
नौकरी करना चाहती हूँ। मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूँ। बड़ी कठिनाई से मैंने इंटर
तक की पढ़ाई पूरी की है । कुछ आमदनी होगी तो आगे भी इसे जारी कर सकूंगी। पैसे के
लिए किसी का मुँह तो नहीं देखना होगा’। वह रुआँसी हो गयी थी ।
मैंने उसे आश्वस्त किया कि कुछ भी
गलत नहीं होने दिया जायेगा और, उसके सामने ही, इस केस से जुड़े लोगों को सभी अभिलेख
के साथ अगले दिन उपस्थित होने के निर्देश दे दिए ।
देर शाम जब आवास पंहुचा तो कपडे बदल कर अभी चाय हाथ में लिया ही थी कि नौकर ने बताया कि कोई मिलना चाहता है। थकान से चूर, मन चिड़चिड़ा
गया। मैंने कहा कि उस से कह दे कि अगले दिन कार्यालय में मिले। नौकर जानता था कि मैं वैसे भी किसी से सरकारी काम के लिए आने वाले से आवास
पर नहीं मिलता था, फिर भी उसने आग्रह के स्वर में कहा , ‘साहब मिल लें। शायद बहुत
जरूरी काम है । बहुत समझाया कि घर आप नहीं मिलते फिर भी जिद्द पकड़ कर बैठा है ।
आया भी कहीं दूर से लगता है।’
‘ठीक है, बुलाओ उसे। मिल ही लेता
हूँ’, कुछ सोच के मैंने कहा। जल्दी जल्दी चाय ख़त्म करके बरामदे में आया तो देखा कि
चालीस के कुछ ऊपर का एक व्यक्ति खड़ा है। मुझे देखते ही वह पैर छूने के लिए झुका, और बोला - ‘साहब मैं उस लड़की का पिता हूँ जो आज आपसे कार्यालय में मिली थी।’
‘तो? उस संबंध में मैंने सारे
रिकॉर्ड कल मंगवाएं तो हैं। अब आज आप क्यों परेशान कर रहे?’, मैंने कुछ नाराज़गी से कहा।
‘असल में सर, मैं कुछ और विनती
ले कर आया हूँ’, उसने याचना के स्वर में कहा। ‘मैं नहीं चाहता हूँ कि उस पत्रावली पर आप तुरंत निर्णय लें।’
मुझे विस्मित होते देख उसने
कहा- ‘मैं आपको सब बताता हूँ सर। इसमें आपके नीचे के अधिकारी अथवा स्टाफ की कोई गलती
नहीं है। मैंने ही उनसे कहा था कि वे कोशिश करें कि मेरी बिटिया का चयन न होने पाए। आप सोच रहे होंगे कि बाप
होकर मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? मजबूरी है साहब, मजबूरी।
हाड़ तोड़ मेहनत और पेट काट कर अपनी तीन बेटियों को पढाया है। यह बड़ी है सबसे। पढाई में
भी बहुत अच्छी। लेकिन साहब रहना तो समाज में ही है, शादी –ब्याह तो करना ही था। पिछले साल
कर्जा लेकर पास के गाँव में इसकी शादी कर दी थी। इसी गर्मी के लिए गौना तय हुआ है।
गौने बाद तो इसे दूसरे घर जाना ही है । वह नौकरी के लिए जिद्द ठाने है लेकिन उसे अभी
ज़माने की समझ ही कितनी है। मैं पिता हूँ उसका और उसके अच्छे के लिए ही तो सोचूंगा।
सोचिये साहब, यदि यह नौकरी पा भी गयी तो भी आखिर कितने दिन यहाँ कर पाएगी! सूची में
दुसरे नम्बर पर एक लड़का है। उसी ने हमसे कहा था कि यदि इस पद को मेरी बिटिया छोड़ दे तो
उसका चयन हो जाएगा। इसके बदले में साहब, उसने गौने के लिए मेरी कुछ मदद करने को
कहा है। अब आप ही बताइये साहब मैं करूँ तो क्या करूँ!’,वह बोलते बोलते रोने लगा था।
और मैं? एक पिता का अपनी पुत्री
के प्रति ममत्व, सामाजिक दायित्वों के प्रति उसकी विवशता और, एक नवयुवती के स्वप्न के मध्य अनिर्णय की स्थिति में निस्तब्ध खड़ा था ।
डॉ स्कन्द शुक्ल
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