Tuesday, November 5, 2024

‘तुम’ - ‘आप’ (Published in Amar Ujala Kavya november 2021)

 https://www.amarujala.com/kavya/mere-alfaz/skand-shukla-tum-aap-1635696168896


तुम’ - ‘आप

 

तुमसे आप पर चले जाना;

यानी, कितना बदल जाना।

 

प्रीति, साहचर्य, सानिद्ध्य;

तुममें, एक निश्छल भावना।

 

लिहाज़, दूरी, अदब, अंतर;

आप में है विलगाना।

 

जीवन में, विरल ही होता,

तुम सदृश सम्बन्धों का बन पाना;

बन गये जो, सहेज वे रखना,

न उन्हें 'आप '  होने देना ।

 

स्कन्द शुक्ल


गांठे खोलो published in Amar Ujala Kavya on 31-10-24 (https://www.amarujala.com/kavya/mere-alfaz/skand-shukla-gaanthe-kholo-2024-10-31)

 


https://www.amarujala.com/kavya/mere-alfaz/skand-shukla-gaanthe-kholo-2024-10-31


आओ,

कुछ यूं ही बातें करते हैं,

जो मन में आए वह कहते हैं,

आओ, कुछ यूं ही बातें करते हैं।

 

ना तुक हो न ताल हो,

दिल में ना मलाल हो,

जो जी में हो वह कहते है।

आओ,

कुछ यूं ही बातें करते हैं।

 

कुछ अपनी कहें, कुछ तुम्हारी सुनें,

कुछ इधर की हों, या उधर की हों

बस ढेर सी बातें हो।

आओ,

कुछ यूं ही बातें करते हैं।

 

वे भी क्या दिन थे ना!

जब दिन भर बोला करते थे,

जब से चुप्पी साधी है

अंदर सबके आंधी है,

कितना सब में छुपा हुआ!

मन में क्या-क्या बसा हुआ!

 

आओ, बैठो, गांठे खोलो,

कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो।

आओ,

कुछ यूं ही बातें करते हैं,

जो मन में आए वह कहते हैं।

 

डॉ स्कंद शुक्ल

प्रयागराज


Sunday, October 13, 2024

--- आइये विचार करें, क्योंकि हम सब भी वृद्ध हो रहे-----(01/10/24 - दैनिक जागरण' में प्रकाशित)

 ---- आइये विचार करें, क्योंकि हम सब भी वृद्ध हो रहे-----

दो दशकों के बाद पुनः वही सब कुछ - रात भर जागना, डायपर बदलना, नेबुलाइज़ करना, वक़्त-बेवक्त दवाइयाँ देना, खड़े होने में-चलने में मदद करना, ऐसे लोगों से संपर्क स्थापित कर सलाह-मशविरा करना जो इसी तरह के अनुभवों से गुज़रे हैं या गुज़र रहे हैं...। दो दशक बाद इन दिनों मेरी पत्नी और मैं पुनः माता-पिता के दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। बस अंतर यह कि इस बार कोई शिशु नहीं है बल्कि हमारे जनक हैं। यह अनुभव पूर्व जैसा भी है, और बहुत अलग भी।
प्रेमचंद ने ‘बूढ़ी काकी' में सही ही लिखा है कि ‘बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है’।
बच्चों की तरह घुटनों और कोहनी को मोड़कर सोना, त्वचा का इतना नरम हो जाना कि बिस्तर का खुरदरापन भी घाव पैदा कर दे, आपके सरल निर्देशों - जैसे मुँह खोलने, कौर काटने या चबा के निगलने- को भी समझने में समय लेना, चीजों को याद न रख पाना, चिड़चिड़ा हो जाना, और जवाब देने या निर्देशों का पालन करने से इनकार कर देना जैसे व्यवहार पर तो कोई भी किसी शिशु के बारे में ही सोचेगा।
अपने किसी बड़े को इस स्थिति में देखकर अपने को यह विश्वास दिलाना बहुत मुश्किल होता है कि आपके समक्ष वस्तुतः एक बच्चा ही है। हम अभी भी उन्हें एक मजबूत व्यक्तित्व के रूप में देख रहे होते हैं क्योंकि हम बचपन से ही इसके आदी हो चुके हैं और यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है कि वे अचानक ही कमजोर हो गए हैं। यह भूलना बहुत मुश्किल है कि कुछ समय पहले तक आप हर चीज के लिए उनकी सलाह पर भरोसा करते थे। उनकी आवाज़ में अधिकार था और यद्यपि आप बड़े हो गए थे और दुनियादारी की समझ भी आ गयी थी तब भी आप अभी भी कभी-कभी मार्गदर्शन के लिए उन्हीं की ओर देखते थे।
बात ना मानने पर बच्चे पर तो आप चिल्ला सकते हैं, नाराज़गी दिखा सकते हैं लेकिन यहाँ यह संभव नहीं। आप इन्हें केवल बहला कर, फुसला कर ही अपनी बात मनवा सकते हैं। फिर ये शारीरिक रूप से बड़े और भारी हैं। आप बच्चे को तो उठा सकते हैं, उसे नहला सकते हैं, कपड़े बदल सकते हैं, लेकिन किसी बुजुर्गों को बैठाना और संभालना एक कठिन काम होता है।
उपर्युक्त अनुभव मुझे अपने देश में वृद्धावस्था के बारे में सोचने को मजबूर करता है।
यूएनएफपीए की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वर्तमान में 15 करोड़ (60 वर्ष और उससे अधिक आयु के) बुजुर्गों की आबादी को 2050 तक लगभग 35 करोड़ तक पहुंच जाने की उम्मीद है। स्वाभाविक है कि जैसे-जैसे जन्म दर कम होती जाती है और जीवन-प्रत्याशा बढ़ती जाती है, बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि होना तय है; लेकिन हमारे पास इस विशाल आबादी के लिए सपोर्ट स्ट्रक्चर नहीं है।
बुजुर्गों के लिए विशेष चिकित्सा सहायता प्रणाली का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। बड़े शहरों में ही जेरिएट्रिक विशेषज्ञ मौजूद नहीं हैं तो माध्यम या छोटे शहरों की कोई क्या कहे। हमारे देश के मेडिकल कोलेजों में जेरिएट्रिक विभाग नगण्य हैं। लोगों को यह मालूम ही नहीं है कि बुजुर्ग और वयस्क एक जैसे नहीं होते, और वे उतने ही भिन्न होते हैं, जितना एक बच्चा एक वयस्क से।
एकल परिवार तथा बच्चों का काम के लिए घर से दूर जाना सामन्य बात हो गई है। इन स्थितियों में बुज़ुर्गों का अकेला पड़ जाना उन्हें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील बनाता है। पार्किंसंस और अल्जाइमर बुजुर्गों में बहुत आम होते जा रहे हैं, लेकिन लोगों को इनके बारे में कोई जानकारी ही नहीं हैं।
बुजुर्गों के लिए ऐसी स्थिति में कोई सोशल सपोर्ट सिस्टम, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में, उपलब्ध नहीं है जहाँ वे अपनी भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक ज़रूरतों को पूरा कर सकें। मुझे याद है कि मेरे पिताजी हर महीने की पहली तारीख को बैंक इसलिए जाना चाहते थे कि वे अपने सेवानिवृत्त सहकर्मियों से भी मिल सकें।
प्रत्येक बीतते दिन हम सभी बूढ़े होते जा रहे हैं और बहुत अधिक समय नहीं है जब हम अपने माता-पिता की तरह वृद्ध और अशक्त हो जाएँगे। अब समय आ गया है कि हमारा समाज और पूरी व्यवस्था अपने बुज़ुर्ग नागरिकों के बारे में चिंतित हो। येट्स की कविता 'सेलिंग टू बाइज़ेंटियम' की वह पहली पंक्ति कभी भी चरितार्थ न होने पाए- ‘दिस कंट्री इज़ नॉट फॉर ओल्ड मेन।'

('अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस' के अवसर पर 'दैनिक जागरण' में मेरा यह लेख अंग्रेजी में पूर्व में 'द हिंदू' में भी प्रकाशित हुआ था, जिसका मैने हिंदी रूपांतरण किया)


डॉ स्कन्द शुक्ल

-------------Parenting Parents------------- (Published in the Hindu 22/09/2024)


 
-------------Parenting Parents-------------

(https://www.thehindu.com/opinion/open-page/parenting-parents/article68642569.ece)

Those sleepless nights, keeping watch on diapers, changing them when they are wet, nebulizing, giving medicines at odd hours, helping in the awkward gait, comparing notes with people who have or are undergoing similar experiences… all are back after two decades. We, my wife and I, are experiencing parenthood once again; only that it’s not a child but one of our parents. It’s similar and yet so different.
The old age is ‘second childishness and mere oblivion’ – as the bard wrote in As You Like It - ‘Sans teeth, sans eyes, sans taste, sans everything’. As he cuddles himself when sleeping, the skin gone so soft that even the roughness of the bed-sheet can create sores, takes time to understand your simple instructions for opening his mouth- chew-swallow the morsel of semi-solid food, looks with vacuous eyes when unable to remember things, gets irritated and just refuses to reply or follow instructions, one cannot but think of a baby.
But then it’s so difficult to make yourself believe that though he is a grown up, you are dealing actually with a child. We still tend to see them as strong people as we have been habituated since our childhood and find it hard to accept that they have suddenly become frail. It’s so difficult to forget that only some time ago you were counting on his advice for everything. His voice had authority and you still looked towards him for guidance at times though you had grown up to be a man of the world. You can shout and express anger at your child if it doesn’t do your bidding but you are unable to bring yourself to shout at him; you simply can’t. You have to cajole and persuade somehow to get past his obduracy. Then he is physically much large and heavy. You can lift a child and bathe it and change clothes, but in the case of the elderly, making him sit and holding him steady is a task in itself.
As I undergo this experience, I muse on the wider picture of geriatrics in our country.
While India has the highest number of young people, ageing is rapidly progressing. The current elderly population of 153 million (aged 60 and above) is expected to reach a staggering 347 million by 2050 as per UNFPA report. As the birth rate gets lower and the life expectancy higher, the number of elderly is bound to grow; but we do not have the support structure for this huge population.
The specialized medical support system for the elderly is conspicuous by its absence. Pediatricians abound but geriatricians are simply non-existent even in big cities. Geriatric department in the medical colleges in our country are a rarity. People don’t even realize that the elderly and the adult are not same, but are as different, as a child is from an adult.
The nuclear families are the order of the day, and the moving of children away from home for work leaves the elderly forlorn and thus susceptible to illnesses related to mental health. Diseases like Parkinson’s and Alzheimer’s are becoming so common among the elderly but people are simply not aware of them.
The social support system for the elderly, particularly in the urban areas, is practically non-existent where they can fulfill their emotional, psychological and socializing needs. The need of socializing is so strong that I remember my father wanted to visit bank on the first of every month not for withdrawal of money as such, but to meet his retired colleagues.
We all are aging every day and it isn’t very long when we shall be in the state in which our parents are. It’s high time when our society and the system as a whole get concerned about its elderly citizenry. Let not the opening line of Yeats’ poem ‘Sailing to Byzantium’ (written in a different context though) ring in our minds- ‘That is no country for old men.'

 Dr Skand Shukla.

---------जन्मदिन------------ (published in Speaking Tree Hindi blog February 2023)

 https://hindi.speakingtree.in/blog/%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%

J
---------जन्मदिन------------
जन्मदिवस!
उन दिनों यह कितना ख़ास लगता था। सुबह एक नवीनता लिए होती थी। घर के सदस्य आप पर विशेष स्नेह न्योछावर करते महसूस होते थे। विद्यालय में भी सब भला भला सा। उस दिन यूनिफार्म नहीं, ‘सन्डे बेस्ट’ होता था। सभी के आकर्षण का केंद्र होने की प्रतीति होती रहती थी, विशेष रूप से जब आप को न जानने वाले अध्यापक या बच्चे भी आप को मुस्कुरा कर विश कर देते थे। क्लास में ‘हैप्पी बर्थडे’ सॉंग के साथ वह सामूहिक बधाई का स्वरोत्कर्ष आपकी भावनाओं को चरम पर ले जाता था। उन दिनों ढेर सारे ‘बेस्ट फ्रेंड्स’ होते थे – करीब करीब पूरी क्लास ही। आप इस दिन के लिए पिछले कितने ही दिनों से इन्तजार करते रहे थे- बल्कि पूरे एक वर्ष से ही! आपको मन ही मन मालूम होता था कि किसी और बच्चे के लिए बता कर आप का नाप लिए जाने वाली बुनाई असल में आप के लिए ही बुना जा रहा स्वेटर है। आखिर बढ़ते बच्चे के लिए, जिसका जन्मदिवस जाड़े में पड़ता हो उसके लिए, प्रत्येक वर्ष एक नए स्वेटर की दरकार तो होती ही है न। तो ऐसे में एक माँ के विचार से स्वेटर से अच्छा गिफ्ट आखिर क्या! घर पर शाम को मोहल्ले के बच्चों के लिए आयोजित छोले-समोसे, दही-वड़े और मिठाई पार्टी में आप बच्चों के संग से ज्यादा उनके गिफ्ट को खोलने के लिए बेताब रहते थे। गिफ्ट-रैप को खोलने के पहले उसके आकार से अनुमान लगाया जाता था कि इसमें क्या होगा - लूडो, चेस, टिफ़िन-बॉक्स, पेंसिल बॉक्स, कॉमिक्स...। उन दिनों यही गिफ्ट होते थे और यही पार्टी; और फिर अगले वर्ष आने वाले जन्मदिन की कल्पना लिए आप निद्रा देवी की गोद में चले जाते थे।
किशोरावस्था में मित्र-मंडली छोटी होती जाती है। अब आपके पास सीक्रेट्स होती हैं, और कुछ भाव, जिन्हें आप कुछ लोगों से ही शेयर कर सकते हैं। गिफ्ट्स भी बदल जाते हैं। आपके करीबी मित्र घंटों उस विशेष ग्रीटिंग कार्ड को खोजने में बिताते हैं जिनमे अंकित पंक्तियाँ उनके मित्रत्व को अच्छी तरह व्यक्त कर सके। अब आप कुछ-कुछ समझने लगते हैं कि वस्तु से अधिक महत्व भाव रखते हैं।
समय और अनुभव के साथ दृष्टिकोण बदल जाते हैं। जीवन के उत्तरार्द्ध में सम्बन्धों की ऊष्मा का अर्थ पूर्ण रूप से समझ में आ चुका होता है। नोटीफिकेशन देख कर सोशल मीडिया पर यंत्रवत दी गयी कृत्रिम बधाईयाँ महत्वहीन हो चुकी होती हैं। परन्तु यदि आप भाग्यवान हैं तो ऐसे बधाई-सन्देश भी मिलते हैं जो किसी ने स्वतः से, अपनी याद से भेजे हैं। उनमें से कुछ तो उनके भी हो सकते हैं जो वर्ष में शायद केवल उसी एक दिन आपको सन्देश भेजते हों। ऐसे सन्देश अपनेपन की महक और विशिष्टता के भाव से सिक्त होते हैं। वे उनके होते हैं जिनके, अपने जीवन के झंझावातों के बीच भी, आप मन-मस्तिष्क में कहीं स्थान रखे होते हैं। अब केवल यही महत्व रखते हैं। विशुद्ध प्रेम में पगी हुयी ऐसी प्रत्येक बधाई आपको संबंधों की गर्माहट का अहसास करा जाती है और शायद यही आपके इस जीवन का अर्जन है।
 डॉ स्कन्द शुक्ल
24 एम.आइ.जी. म्योराबाद आवास योजना, प्रयागराज

Sunday, December 24, 2023

Revering the Inanimate (published in The Economic Times -Speaking Tree column on the editorial page) date 22-12-23

Link - https://economictimes.indiatimes.com/opinion/speaking-tree/revering-the-inanimate/articleshow/106219917.cms

The above article was published in The Economic Times (Speaking Tree column on the editorial page).

The original version (before being edited for publishing) is here below-

Reverence towards all

There was quite an outrage in our country recently over Mitchell Marsh’ putting his feet on the World Cup trophy. The rest of the world, interestingly, was totally indifferent to the act. This shouldn’t be a surprise actually. The sentiment of reverence towards all things is an attribute particular to the Indian ethos. Whether it’s an artist stepping on the stage, a player entering the stadium, or a driver beginning on a journey, he or she bows in obeisance before embarking. It has been there in our subconscious since childhood to pick up a pencil or a book that has fallen down and immediately touch them to our foreheads in reverence. One can see the lawyers bowing their heads to the bench while entering or leaving the court rooms. And, these are all reflex actions performed without a thought.

Reverence towards all things – animate or inanimate – is part of our psyche. Perhaps it originates from the non-dualistic philosophy which has been expressed in these Mahavakyas, or great statements in the Upanishads -   Aham Brahmasmi – I am Brahman (the Absolute); Tat Tvam Asi – That Thou Art;  Ayam Atma Brahma – This Self is Brahman. These Mahavakyas convey the essential teaching of the Upanishads, namely, the individual self which appears as a separate existence, is in essence part and manifestation of the whole.

This reverence towards all things is perhaps that which makes us tolerant, large-minded and all encompassing. This is perhaps that on which the foundation of our belief in truth, justice and, dharma (right conduct) exists. This perhaps is the reason that one doesn’t dare lie when one holds Ganga jal in one’s palm.  And, this perhaps, is the basis of the adage in that famous story ‘Panch Parmeshwar’  by Munshi Premchand – ‘God himself speaks through the voice of the panchayat’

However, it seems that this sentiment of reverence has been undergoing abatement with the growth of consumerism and individualism; and with it the notions of truth, justice and dharma too seem to have been dissipating.

It’s essential therefore, that we do not lose our feelings of reverence for all; because losing it shall be sounding the death knell for both ourselves, and the society.

 

Dr (Skand Shukla)

 

Monday, October 2, 2023

साइकिल तब और अब published in Sunday Magazine of Amar Ujala

 आज के 'अमर उजाला' के रविवासरीय में मेरा व्यंग-लेख - 



साइकिल - अब और तब

(अमर उजाला हास्यरंजिनी (01/10/23)


“अजी हद्द है! आठ-नौ हजार दाम में केवल ये दो पहिये, जरा सी एक तिकोन प्लास्टिक की सीट, और बहु-कोणीय हैंडल! उन दिनों तो साथ में मडगार्ड, बड़ी सी गद्देदार सीट के पीछे  कैरियर, और फ्रेम में एक डंडा भी लगा होता था। और तो और, दाम भी इतना नहीं होता था कि सुनकर किसी की आँखेंही बाहर निकल आयें।


कैरियर भी शुद्ध लोहा-लाट!इतना मजबूत कि कितने भी बड़े और भारी सामान लाद लो। उस पर गेहूँ के कनस्तर टिका कर पिसवाने ले जाना, या गैस के खाली सिलिंडर लाद लेना बहुत सामान्य था। सीधी-सादी हैंडल को पकड़ कर सीधा ही बैठा जाता था - पीठ को धनुषाकार बना कर नहीं। हैंडल पर टाँगे जाते थे सब्जी आदि सामान भरे झोले। हैंडल और सीट के बीच वाला डंडा भी कम उपयोगी न था। डंडे पर लगी एक छोटी सी सीटपर बैठे छोटे से बच्चे, और पीछे कैरियर पर बैठी पत्नी का दृश्य तो कैंटोनमेंट एरिया के आस-पास बहुत ही सामान्य था। अन्य लोगों के लिएभी, विशेष रूप से छात्रों के लिए,डबल और ट्रिपल सवारी आम बात थी।“


“अरे ज़माना बदल गया है साहब! उस जमाने की बात न करें। पॉलिथीन के इस समय में झोले में सब्जी! जब पैक्ड आटा है तो कनस्तर कौन लाद के ले जाए? वह भी आज के बच्चे? अरे उन्हें माँ-बाप आचार की तरह पालते हैं। धूप न लगे, गरमी न लगे,  और घरेलू काम में समय खराब न हो कि पढाई में जरा भी नम्बर कम हो जाए। और कहाँ की डबल-ट्रिपल सवारी? एक असली दोस्त मिले तो पहले कि उसे आप, या वह आपको भार को ढो सकने को तैयार हो। अब तो वर्चुअल मित्र हैं-गेमिंग में दूर से पार्टनरशिप देने वाले, या फेसबुक, इन्स्टाग्राम पर लाइक चिपकाने वाले। तब की दोस्ती जैसी नहीं कि यदि दोस्त की साइकिल खराब हो जाये तो उसे छोड़कर आगे बढ़ जाने के बजाय ख़ुद भी अपनी साइकिल से उतरकर डुगराते हुए पैदल साथ देने लगते थे।

और एक बात - वह पुराने समय की हैंडल? आज के जमाने में किसका मेरुदंड सीधा रह गया है जो वह उस तरह से पीठ सीधी रख कर बैठ सके?”

मेरी समझ में भी अब नयी साइकिल की डिजाईन समझ आ गयी थी, और मैं अपने पसंद के रंग वाली देखने लगा।


- डॉ स्कंद शुक्ल