Tuesday, March 3, 2020

एक रुपया - पुनर्नवा दैनिक जागरण - 14-01-2020


             एक रुपया

वाह!  बिलकुल अपने नाम के अनुरूप, ग्रैंड! मॉल रोड के ऊपर स्थित इस स्थान से शिमला के खूबसूरत पहाड़ों की हरीतिमा क्या खूब दिख रही थी। कुछ पल पहले तो लग ही नहीं रहा था कि यह खड़ी चढ़ाई समाप्त भी होगी। और फिर अचानक उस पोर्टर का स्वर – ‘इस सीढ़ी पर चढ़िए’, और एक लोहे की साधारण सी सीढ़ी की ओर उसका मुड़ना। लगा कि गलत होटल का चयन हो गया। पता नहीं किसने सुझाया था इसे कि वह एक हेरिटेज भवन है और कभी लार्ड विलियम बैंटिक का कासल था।  परन्तु, प्रवेश द्वार से घुसते ही उस विराट कई मंजिला इमारत ने मन के संशय को समाप्त कर दिया। चिनार और देवदार के विशाल वृक्षों से आच्छादित उस सुन्दर विस्तार में जगह जगह पर बंदरों से दूर रहने की हिदायत के बोर्ड लगे थे। कुछ देर अपने सुइट में आराम करने के बाद बाहर निकल कर घूमने का निश्चय हुआ । होटल की बेदम सी चाय के कारण एक  बढ़िया चाय की जोरदार तलब भी थी। 


होटल की सीढ़ियों से उतरते ही सड़क पर ढेरों खाने की दुकानें थीं । सच तो यह है कि किसी स्थान के असली खाने को चखना- जानना हो तो स्ट्रीट-फ़ूड से अच्छा कुछ भी नहीं होता। आलू-पराठा जैसी सर्व-सुलभ चीज़ का भी स्वाद अलग अलग स्थानों पर अलग अलग ही आप पायेंगे। परन्तु उस समय तो आँखें केवल चाय की दूकान खोज रही थीं। और एक दिख भी गयी- बस कुछ कदम दूर।
बुजुर्ग से उस चाय वाले ने हमें देखते ही स्वागत भरी गर्म मुस्कान के साथ पूछा – ‘चाय? पराठे तो अभी बने नहीं हैं । उनके लिए तो अभी आटा गूंथने जा रहा हूँ।’ 

‘हाँ, बस चाय। दो कप।’ 

बच्चे अपने चिप्स के पैकेटों में व्यस्त थे।

ऊपरी सतह पर एल्युमीनियम शीट लगा हुआ एक बड़ा सा लकड़ी का बक्स- स्टोर और रसोई के काउंटर-टॉप- दोनों के ही रूप में उपयोग हो रहा था। एक ओर मिट्टी-तेल का पम्प वाला स्टोव रखा था। दूध से भरा एक बड़ा सा एल्युमीनियम का भगोना, चाय बनाने का एक पैन, एक बेलन और, पराठे सेंकने के लिए एक लोहे का तवा भी उसी पर थे। बगल में कुछ प्लास्टिक के मर्तबान थे जिनमें चाय की पत्ती, चीनी और मठरी जैसी खाने की चीज़ें थीं। कुछ डिस्पोजेबल पेपर कप, शीशे की ग्लास और शायद मठरी आदि तौलने के लिए एक तराजू। यही कुल दूकान थी।

तभी एक अप्रत्याशित वस्तु की ओर निगाह गयी – एक पिस्तौल, बिलकुल असली ! 

‘यह क्यों?’, मैंने आश्चर्य के स्वर में पूछा। ‘क्या यह खिलौने वाली है?’
‘न, बाबू’, उसने चाय के लिए अदरक कूटते हुए उत्तर दिया। 

‘बिलकुल असली तो नहीं है पर यह खिलौना भी नहीं है। इसमें से रबर वाली गोलियां निकलती हैं। इनसे हल्की चोट भी लगती है। असल में जब बन्दर गुलेल से नहीं डरते तो इसे चलाना पड़ता है।’

ऊपर होटल और आस पास की इमारतों पर लोहे की ढलुवा छतों पर दौड़ते, खेलते और आपस में लड़ते बंदरों की तेज़ आवाज़ सुनायी पड़ रही थी । ‘अरे! देखो, उधर एक है’, छोटे बेटे ने चाय वाले के पीछे चट्टान पर, देवदार के वृक्ष की आड़ ले कर हमारी तरफ देखते बन्दर की ओर इशारा किया। उन्होंने अपने पास रखी  पिस्तौल उठा कर हँसते हुए उसे देते हुए कहा, ‘इसे लो और उसकी ओर इसे दिखाओ। डरो नहीं, यह खाली है। इसका स्वाद वो सब पहले पा चुके हैं इसलिए अब इसे देख कर ही डर जाते हैं।’ 

सचमुच, पिस्तौल देखते ही वह बड़ा सा बन्दर तुरंत डाल डाल  कूदते हुए भाग गया।

चाय अच्छी थी और वह स्थल भी प्रीतिकर। उन कुछ दिनों में सुबह की पहली चाय का स्थान वही रहा।

प्रवास का तीसरा दिन। अल सुबह। सब शांत - पहाड़ की शीतल हवा में झूमते चिनार और देवदार के पत्तों, चिड़ियों के कूजन और, बीच बीच में बंदरों की चिल्लाहट के अतिरिक्त। अधिकांश पर्यटक शायद अभी अपने गर्म रजाइयों के सुखद ककून में थे, पर पहाड़ जगने लगा था। चाय वाला स्टोव जलाने के लिए उसमे पम्प दे रहा था और मेरी पत्नी और मैं दो बड़े पत्थरों पर रखे पटरे वाली बेंच पर बैठे चाय की प्रतीक्षा कर रहे थे। दूर पहाड़ सुबह की धुंध में ढंके थे। नीचे शिमला का रेलवे स्टेशन दिख रहा था । धुएं के छल्ले फेंकता और अपने हूटर से अपनी पूरी ताकत झोंक देने का अहसास कराता एक इंजन हाँफता चल रहा था। जल्द ही कालका से सुबह वाली टॉय-ट्रेन्स छुक छुक करती पँहुचने लगेंगी। मैं प्लेटफार्म पर उन कुलियों की कल्पना कर सकता था जो पर्यटकों की प्रतीक्षा में खड़े होंगे कि वे आयें तो वे उनके भारी भरकम लगेज को अपनी पीठ पर बांध कर उन खड़े पहाडी रास्तों से ऊपर पहुँचायें।

छह-सात लोगों का एक ग्रुप अचानक उस चाय के स्टाल पर पहुँचा। उनके साथ सामान देख कर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि वे लोग नीचे, स्टेशन पर, शिमला से वापस कालका जाने वाली गाड़ी पकड़ने जा रहे हैं ।

‘चाय मिलेगी?’, उनमें से एक ने पूछा ।
‘जी बिलकुल’, चाय वाले ने मुस्कुरा के जवाब दिया । ‘बस पांच मिनट लगेंगे। उन लोगों की  बन रही है, बस उसके बाद आप लोगों के लिए।’
‘असल में जल्दी है हम लोगों को’, उस युवक ने कहा और इधर उधर नज़रें दौड़ाईं कि शायद कोई अन्य दूकान दिख जाय। पर उस समय आस पास कोई भी और नहीं खुली थी ।

‘कोई बात नहीं, आप इन लोगों को पहले पिला दीजिये’, मैं अपने स्थान से ही बोला। ‘हम लोग इनके बाद ले लेंगे।’ 

मुझे लगा कि इन्हें अपनी ट्रेन पकड़नी होगी; और वैसे भी, हम उस आनंदमयी सुरम्य निर्मल निस्तब्धता में डूबे हुए अनंत प्रतीक्षा कर सकते थे।

एक हल्के से कोलाहल से मेरी तंद्रा टूटी। चाय वाले ने 500 रुपये का नोट हाथ में पकड़ा हुआ था और उन लोगों से किसी छोटे मूल्य का नोट चाह रहा था। वो कह रहा था कि सुबह का समय है और वे लोग उसके पहले ग्राहक। आखिर इतनी सुबह वह उसका छुट्टा कहाँ से दे। परन्तु उस ग्रुप में सभी ने छुट्टे पैसे अथवा छोटा नोट पास न होना बताया।

थक हार कर उसने दूकान में खंगालना शुरू कर दिया, और अंततः विभिन्न मूल्यों के नोट और सिक्कों को जोड़-जाड़ कर उस व्यक्ति को पैसे वापस किये। 

उन सिक्कों और तुड़े- मुड़े नोटों को बड़ी मेहनत से सीधा कर-कर उन सज्जन ने गिनना प्रारंभ किया ।

‘अरे! इसमें तो एक रुपया कम है अभी’, उन्होंने पूरा गिनने के बाद कहा ।

‘बाबू , कुछ देर बाद ले लीजियेगा । सब जगह ढूंढ लिए और अब इस समय तो है नहीं।’

‘अरे भाई, अब कहाँ हम लोग लौटेंगे । हम लोग तो जा रहे हैं ट्रेन पकड़ने।’

तभी चाय वाले को स्टोव के पाए की नीचे एक सिक्का नज़र आया और उसने उसे तुरंत उठा कर उन्हें दे दिया । पार्टी अपने गंतव्य की ओर रवाना हुयी।

उसी दोपहर उस स्टाल पर दुबारा जाना हुआ । 

हुआ यूँ कि उस दिन के लिए निर्धारित दर्शनीय स्थलों का भ्रमण कुछ जल्दी ही ख़त्म हो गया, तो तय हुआ कि होटल चल कर कुछ देर आराम कर लिया जाये और शाम को फिर से निकला जाएगा।

होटल के लिए उस खड़ी चढ़ाई पर चलते समय चाय की इच्छा हुयी। दूकान पर कोई ग्राहक नहीं था और उन बुजुर्ग चायवाले के स्थान पर एक बुजुर्ग महिला थीं – गोलमटोल चहरे की झुर्रियों पर पसरी हुयी उसी स्नेहिल मुस्कान के साथ।

‘क्या लेंगे?’, उन्होंने प्रेम से पूछा ।

‘हम दो लोगों के लिए चाय’, मेरी पत्नी ने कहा। 

‘जी’, वे बोलीं और चाय की तैयारी शुरू कर दी।

‘अंकल नहीं दिख रहे? दोपहर में दूकान आप ही संभालतीं हैं क्या?’ पत्नी ने पूछा।

‘अरे नहीं। असल में वो दूकान के लिए कुछ सामान लेने गए हैं, इसीलिये मैं यहाँ हूँ।’

‘तुम दोनों चाय नहीं लोगे?’ , वो बच्चों की ओर मुखातिब थीं।

‘न, हम लोग चाय नहीं पीते’, छोटे ने उत्तर दिया।

‘वाह! यह तो बड़ी अच्छी बात है। बच्चों को चाय नहीं पीना चाहिए।’ उन्होंने बच्चों से मुस्कुरा के बोला। 

काम के साथ साथ वो उनसे बात करती रहीं। वे किस कक्षा में पढ़ते हैं, कहाँ रहते हैं, आदि, आदि।

कुछ ही देर में चाय बन गयी और हमे उन्होंने दो पेपर कप पकड़ा दिए। उसके बाद सामने रखी झबिया से पेपर के बड़े से दोने में नमकपारा निकाला और बच्चों को दे दिया। ‘बस अभी दस मिनट पहले ही बनाएं हैं। तुम दोनों को अच्छे लगेंगे।’, वे बोलीं।

उस दोने से हम दोनों ने भी कुछ ले कर चखा। नमकपारे सचमुच बहुत कुरकुरे और स्वादिष्ट थे।

‘कितने हुए?’, चाय पी लेने के बाद मैंने पचास रुपये का नोट देते हुए पूछा।

‘बीस’, उन्होंने तीस रूपए वापस करते हुए कहा।

‘अरे आप नमकपारा जोड़ना भूल गयीं’, मैं बोला।

एक भ्रूभंगित मुस्कान के साथ उन्होंने कहा - ‘कौन से नमकपारे’?

‘अरे, आप दोनों लोग चाय पीते और ये दोनों ऐसे ही बैठे रहते? मेरे नाती-पोते भी इन दोनों के बराबर हैं।  वो तो इनको मेरी ओर से था’।

नीचे श्यामला देवी के मंदिर की घंटियो की मधुर आवाज़ स्पष्ट सुनायी पड़ रही थी।

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Note- the newspaper erroneously published someone else's photograph instead of mine 
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