शीत के बाद बसंत
जाड़े की शामें हमेशा से ही उसे मनहूस लगती रही
हैं। गर्मियों की तरह सूरज धीरे धीरे नहीं उतरता, कि लोग
धीमे धीमे ठंडी होती सांझ का आनन्द उठा सकें। वह तो दिखते दिखते धुप्प से अचानक ही ढुक जाता है, और
तुरंत ही, हो आये अँधेरे के साथ, ठंडी, अन्दर तक बेध देने वाली गलन उस मुलायम सी
गरमी को न जाने कहाँ भगा देती है। तब, ‘लव सॉंग ऑफ़ प्रूफ्रोक’ में एलीअट की वह
चौंका देने वाली पंक्ति कितनी सटीक लगती है – ‘व्हेन द इवनिंग इज स्प्रेड आउट
अगेंस्ट द स्काई/ लाइक अ पेशेंट ईथरायिज्ड ऑन द टेबल’।
अब तो बसंत के आगमन के साथ ही ये शामें खुशनुमा
होंगी कुछ।
निम्मी पार्क में बैठी रोमी का इंतज़ार कर रही थी।
थोड़ी देर में धुंधलका छाने वाला था। बस कुछ ही देर में खेल रहे बच्चे अपने अपने
घरों को चले जायेंगे। कुछ कुछ अपार्टमेंट्स से उन्हें अन्दर आने की आवाजें आने भी लगी
थीं- ‘अब अन्दर आओ, होमवर्क करना है’, ’ठण्ड बढ़ रही है, जल्दी आओ’... । पार्क में
स्थित उस बड़े से पेड़ पर चिड़ियों की फौज वापस लौट रही थी और चिड़ियों और उनके चूजों
के मिलन का शोर बढ़ता ही जा रहा था।
टाइम कटे भी तो कैसे? पढ़ने की हॉबी तो है, लेकिन
कितना पढ़े? और जिसे पढ़ने की लत हो, वह टी.वी. को नहीं झेल सकता? सोशलाइज़ेशन तो
कितने वर्ष हुए समाप्त ही हो गया। आखिर जिसके घर जाओ वह अपने बच्चों में व्यस्त।
और फिर मिलने जुलने वालों की बातों और आँखों में हमेशा वही सवाल। कभी स्वाभाविक
जिज्ञासा के रूप में और कभी संवेदना स्वरुप। नौकरी भी छोड़नी पड़ गयी। आखिर महीनों
महीनों की छुट्टियां देता कौन जो माँ बनने के प्रयास में उसे आवश्यक होती थीं।
आई.वी.एफ., मोलर प्रेगनेंसी, मिसकैरिज... जैसे शब्द तो पढ़ाई लिखाई के दौरान
सुने-पढ़े थे। क्या पता था कि उनसे इस तरह रूबरू होना होगा किसी दिन। तभी उसे पैरों
के पास कुछ गुदगुदी से लगी, जैसे किसी ने छुआ हो। तन्द्रा टूटी और उसने अचकचाकर
बेंच के नीचे झांका।
‘ओह! तो यह तुम हो!’ भय मुस्कान में बदल गया। वह
एक प्यारा सा पिल्ला था। गोल मटोल सा ढनंगते उसके पैरों से चिपट रहा था। तभी उसकी
माँ आ गयी, हौले से दांतों से उसे पकड़ा और सुरक्षित स्थान पर ले जाने लगी।
वह फिर से बैठ गयी। खाना बनाने का कितना शौक था
उसे। वह भी, नए नए व्यंजन इजाद करने का। और, रोमी हो या उसके सास-श्वसुर, सभी खाने
के शौक़ीन। लेकिन अब? अच्छा नहीं लगता जब पड़ोस की हम-उम्र महिलाओं को कहते सुनती है
– ‘अब इन बच्चों को कौन सा व्यंजन बना कर दें? टिफ़िन खत्म ही नहीं करते ये कभी’। ‘काश,
ईश्वर ने अवसर तो दिया होता मुझे’!
उन संत्रास भरे प्रयासों के दौरान कितनी ही बार
तो ख्याल आया कि किसी बच्चे को ही गोद ले लें। कुछ करीबी शुभेच्छुओं ने यह भी कहा
कि गोद लेना बड़ा शुभ होता है। अक्सर ऐसा करने पर कंसेप्शन भी सफल हो जाता है।
लेकिन यह निर्णय इतना आसान तो होता नहीं न। परम्पराओं, संस्कारों में बंधे हम,
कैसे स्वीकार लें किसी को? कितने तो प्रश्न उमड़ते थे जब भी इस पर रोमी से बात
हुयी। किसका होगा वो? क्या बड़ा होने पर अपना मानेगा हमें? आखिर अभी हमारी उम्र ही
क्या है? अभी तो कुछ एक वर्ष और हैं कि अपने के लिए प्रयास कर लें। गोद तो कभी भी
ले लेंगे।
यह भी सोचा कि किसी रिश्तेदार से ही उसका बच्चा
गोद ले लें। इस से कुल आदि के प्रश्न और संशय से मुक्ति तो रहेगी। लेकिन फिर दूसरी
बाधाएं। किस से कहो। कैसे प्रस्ताव रखो। पुराने ज़माने की तरह अब कई कई बच्चे तो होते
नहीं परिवारों में, कि किसी एक को दुसरे को दे दे। न्यूक्लिअर फैमिली के समय में
वैसे भी सब नियोजित ही होता है।
बस, इसी सब में बारह वर्ष गुजर गये । अब तो आदत
पड़ गयी है। अब अवसाद है भी तो महसूस नहीं होता ।
रोमी आ ही रहे होंगे। निम्मी ने उठने का उपक्रम
किया ही था कि अचानक पीछे से आवाज़ आयी – ‘अरे हम लोग को देख कर चल दी क्या?’ और
फिर एक मधुर सी हँसी। उसने पीछे देखा तो उसके टावर के ग्राउंड फ्लोर पर एक
अपार्टमेंट में रहने वाले बुजुर्ग दम्पत्ति – चोपड़ा अंकल और आंटी थे।
‘अरे नहीं आंटी’, कहते हुए उसने लपक के दोनों के
पैर छुए। चोपड़ा अंकल व्हील चेयर पर थे और उनकी पत्नी उन्हें पार्क की सैर कराने ले
आयी थीं। उसने उनके हाथ से व्हील चेयर की हैंडल ले ली और उस छोटे से आर्टिफीसियल
पॉन्ड के पास उनके पसंदीदा स्थान की ओर चली।
चोपड़ा जी पिचहत्तर के कुछ ऊपर के थे और उनकी
पत्नी उनसे दो-तीन वर्ष कम। सरकारी अधिकारी रहे थे और कई उच्च पदों पर कार्य करते
हुए पंद्रह वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त होकर इसी शहर में बस गये थे। अधिकांश सेवा
काल उनका इसी महानगर में बीता था। दोनों
संताने भी यहीं हुयी थीं और स्कूली शिक्षा
ग्रहण की थीं। भाग्यवान व्यक्ति थे। दोनों ही बच्चे उच्च पदस्थ। एक तो अमरीका में
किसी बैंक में कार्यरत था। उसने अमरीकी नागरिकता भी ले ली थी। और दूसरा, भारतीय वन
सेवा का अधिकारी था जो नार्थ-ईस्ट के किसी काडर में तैनात था। दोनों के ही दो दो
बच्चे थे। सुन्दर और गुणवान। ऐसा सुना था। क्योंकि किसी को याद नहीं कि इन हाल के
वर्षों में उनमें से कोई अपने बाबा-दादी के पास मिलने आये हों। नौकरी की शुरुआत
में तो बेटे बहू साल में एक-आध बार आ जाते थे। होली पर कोई और, दीपावली पर कोई।
लेकिन समय के साथ, नौकरी की व्यस्तताएं और बच्चों की पढाई उन भेंटों को कम करती गयीं।
अब तो स्काइप और फेसबुक के माध्यम से ही उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि का पता चलता था।
‘बस-बस, यहीं रोक दो निम्मी’, अंकल ने कहा। चोपड़ा
आंटी और निम्मी उनके बगल में बैठने के लिए रखे रॉक्स पर बैठ गये।
‘शीत ने इन पौधों की पत्तियाँ ही समाप्त कर दी
हैं। ठण्ड कम हो तो यह वापस हरी हों’, निम्मी ने पॉन्ड के पास के लगे फूलों के
पौधों की ओर देखते हुए कहा।
‘आप लोग यहाँ की यह भीषण जाड़ा क्यों झेलते है?
इतनी बढ़िया जगहों पर आपके बेटे हैं, वहाँ कभी नहीं जाते आप लोग?’, उसके मुँह से
बरबस ही निकल गया।
‘हाँ, सुना तो हम दोनों ने भी है कि वे दोनों ही
बड़े बड़े खूबसूरत बंगलों में रहते हैं। काम करने वालों और सुविधाओं की कोई कमी नहीं
है’, चोपड़ा अंकल ने बोला। ‘लेकिन मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता होती है समाज की,
कोई बोलने-बतलाने वाला, कोई जिस से वह शेयर कर सके अपने अंतर्मन को। और वह इसकी
जीवन यात्रा में कोई भी हो सकता है। उसके लिए विधिक और सामाजिक रूप से परिभाषित
संबंधों की परिधि ही आवश्यक नहीं। वह सब यहीं है। आखिर जीवन का अधिकांश समय यहीं
बिताया है हम दोनों ने, तो संबंध भी तो यहीं हैं’।
तभी आंटी ने बोला, ‘अरे निम्मी, व्हाट्सएप्प पर
मेरी नयी डीपी नहीं देखी तुमने?’
‘हाँ आंटी, दोपहर में नज़र पड़ी। पूछने ही
वाली थी। फिर दादी बनी हैं क्या आप! बड़ी प्यारी से बिटिया की फोटो लगी है उस पर’।
‘नहीं जी। तुम तो जानती हो न कि कॉलोनी के
पास उस अनाथालय में हम लोग जाते रहते हैं अक्सर। बस वहीं पर थी यह। अनाथालय की
सिस्टर ने बताया कि गेट के पास कोई एक कम्बल में लिटा हुआ छोड़ गया था। सचमुच बहुत
प्यारी है वो। कल ही तुम्हारे अंकल का जन्मदिन भी है न। वहीं मनाएंगे। और इसके लिए
तो आज दोपहर इन्होंने खूब सारे सामान विशेष रूप से लिए, जैसे अपने ही घर कोई आया
हो’
‘अरे भाई, अपने घर में ही कोई आया हो, यह
सब मानने की ही तो बात है। मन ने मान लिया कि अपना है तो बस हो गया’, अंकल ने
ठठाकर कर हँसते हुए उत्तर दिया।
निम्मी को अन्दर कुछ हो रहा था। जैसे वह
अचानक किसी निर्णय पर पंहुचने चाहती हो। तुरंत।
अचानक उसने अपना फोन अपने हैण्ड-वॉलेट से
निकाला और रोमी को मिला दिया।
‘जल्दी आओ थोड़ा।‘
‘कुछ विशेष?,’ उधर से आवाज़ आयी।
‘हाँ। विशेष। एक छोटी सी बिटिया के लिए
शॉपिंग करनी है, खूब सारी। आखिर कितनी भी विकट ठण्ड पड़े, बसंत तो आयेगा ही न।’
चोपड़ा दंपत्ति उसके मुख पर पसर आयी उस
अभूतपूर्व शांतिमय-कान्ति को स्पष्ट देख रहे थे।
(डॉ स्कन्द शुक्ल)
24 एम.आई.जी.
म्योराबाद आवास योजना , कमलानगर,
प्रयागराज
दैनिक जागरण और नयी दुनिया के साहित्यिक पृष्ठ पर प्रकाशित (12/10/20) लिंक - https://epaper.naidunia.com/epaper/image-12-Oct-2020-edition-bhopal-10-78866.html?fbclid=IwAR2037oQ88VSEovaZ7crlVTkwYlSYkHCUW2SG2Qa7ncIviswlT3mIdFwlGo