हैप्पी बर्थडे
अरे ये क्या! आज तो 24 जनवरी है। तो क्या? हुआ करे, मेरी बला से। चलूं उठूँ ।
सुबह के छः बज गये है! दो ही दिन तो हुए है जॉगिंग शुरू किये, अलसियाना ठीक नहीं। लेकिन ये इसकी याद क्यों आ गयी, अचानक? वर्षों हो गये बातचीत
हुए, या सच बताऊं, तो ख्याल ही आये। हद है! पचास वर्ष की उम्र में उसका सपने में दिख जाना! उन दिनो तो कभी मेरे सपने में आयी नहीं जब घंटो साथ बीतते थे। हाँ वो कभी कभी छेड़ने के
लिए अवश्य पूछती थी कि यार मैं कभी
तुम्हारे सपने वपने में आती हूँ की नहीं, और मैं तुनक के कहता था कि भाई दिन भर का
तो साथ रहता है अब कम से कम नींद में तो
चैन से रहने दो । अरे! उठूं भी- ये सब क्या सोचने लगा? अच्छा एक करवट और, बस दो
मिनट। तो आज वो सपने में क्यो आ गयी? क्या टेलिपाथी जैसा तो कुछ नहीं हुआ होगा कि मैं भी उसके ख्यालों में आया होऊंगा? सोच कर
अच्छा लगा। अरे खाक आया होऊंगा! ये
सब टेलिपाथी-वेलापाथी किताबी चीजें हैं। और
वैसे भी, इस सपने में कुछ ऐसा रोमान्टिक तो था नहीं। इस उम्र में, जीवन के यथार्थों से प्रतिक्षण
रूबरू होते होते, ढेरों जिम्मेदारियों के
बोझ तले, अब तो सपने भी रूटीन हो गये है। सपने में तो हम झगड़ रहे थे, बहस कर रहे थे- कीट्स के ओड्स पर और अचानक हैमलेट के दर्शन के सार
पर। हैमलेट मेरा पसन्दीदा चरित्र था- अनिर्णय से परिपूर्ण और और भविष्य के लिए आशंकित । अन्त में शेक्सपीयर ने कह ही तो दिया था
कि आप कुछ नहीं करते, सब कुछ वो ऊपर वाली, वो
सर्वशक्तिमान अदृश्य शक्ति ही करती कराती है। व्यक्ति तो मात्र निमित्त है और सब
कुछ उसके जीवन में पूर्व –निर्धारित - ‘There’s a divinity that shapes our ends.’ । और वो, हैमलेट के
अनिर्णय वाले चरित्र की निंदक।
विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी का वो
रीडिंग रूम और बड़ी सी ओवल आकार की टेबल। हम पढ़ रहे थे। ‘‘ए सुनो, तुम मुझसे प्रेम तो नहीं
करने लगे’’
अचानक उसने छेड़ने के
अंदाज़ में पूछा। मैं चौंक उठा, “क्यों? बिल्कुल नहीं”। ‘‘अच्छा मान लो हमारा विवाह हो गया तो’’? पुनः प्रश्न। “तो फिर
क्या? पटेगी नहीं एक दिन भी”,
मैने कहा। “विवाह की सफलता के लिए, दो अनजान लोगों को करीब
आने के लिए, रोमांस आवश्यक है ; और रोमांस आता है
नोवेल्टी से, इमैजिनेशन से, इमोशन्स आदि, आदि से। वो हमारे बीच
होगा नहीं क्योंकि लगता ही नहीं कि इस प्रगाढ़ मैत्री के कारण एक दुसरे के मन के
बारे में कुछ डिस्कवर करना बचा है । वैवाहिक सम्बन्ध में पटने के लिए कुछ सीक्रेट्स
चाहिए दो लोगो के बीच में- और यहाँ हम
दोनो के बीच वहीं नहीं है- एकदम खुली पुस्तक हैं हम दोनो एक दूसरे के लिए”। “हुम्म”, उसने धीमे से कहा।
“और ये मित्रता क्या होती है ?” उसने पूछा
। “और ये प्रेम, और रोमांस”? मेरे शब्दों के मीमांसा करने के गुण से वो इतना
परिचित जो थी । “क्या मालूम भाई ,”
मैंने कहा । “प्रेम हुआ हो तब तो बताऊँ । और रोमांस ? मेरे जैसे भावना शून्य ,
इमोशनलेस व्यक्ति के लिए तो उसका अनुभव असंभव ही है । आई ऍम अ
पर्सन ऑफ़ रीज़न नॉट ऑफ़ इमोशन्स, यू नो सो वेल। लेकिन अब तुमने विषय छेड़ ही दिया है
तो मेरे ख्याल से यह कहा जा सकता है कि ‘प्रेम’ बस होता है, बिना भावाभिव्यक्ति के भी उसका अस्तित्व है। 'रोमांस' में उसका परिलक्षण , उसकी अभिव्यक्ति होती है; और यह प्रकटन, यह
अभिव्यक्ति किसी व्यक्ति की केवल कल्पनाओं से ही सीमांकित हो सकती है - लिमिटेड ओनली बाई वन्स इमेजिनेशन ,
यू नो” । “मैं समझी नहीं”। "एक उदाहरण देता हूँ । शॉ की ‘कैंडिडा’ पढ़ा है न
तुमने ? पति-पत्नी प्रेम तो करते हैं एक
दूसरे से पर जब कभी वो एक्सप्रेस किया जाता है शब्दों में , ऐक्शन्स में – जैसे
कोई सरप्राइज गिफ्ट , कैंडल लाइट डिनर – तब रोमांस का प्रवेश होता है । रोमांटिक
लम्हा उस अनिर्वचनीय प्रेम को महसूस करा जाता है । प्रेम आपके वातावरण में रचा बसा
तो रहता है परन्तु आप उस से अनभिज्ञ रहते हैं। कुछ वैसे ही जैसे पढ़ाई में डूबे
रहने पर कमरे में बज रहे रेडियो कि उपस्थिति का एहसास तब तक नहीं होता जब तक की
कोई उसे बंद न कर दे या, उसके ट्यून में परिवर्तन- व्हिच एक्चुअली जोल्ट्स यू तो
कॉन्शअस्नेस ऑफ़ इट्स बीइंग” । “और मैत्री ?” उसने पूछा। “प्रेम पोजेसिव होता है ,
मित्रता नहीं । मैत्री वहाँ है जहां हम अपने सभी मनोभावों को बिना किसी वर्जना के,
हिचकिचाहट के और, शर्म के दुसरे के समक्ष प्रकट कर सकें , शेयर कर सकें। प्रेमी यह रिस्क नहीं मोल सकता कि उसके किसी
वाक्य से, किसी कृत्य से प्रेम मंद पड़ जाय । मैत्री ऐसी किसी आशंका से मुक्त रहती
है” । “लेकिन प्रेम के लिए तो कवियों ने इतने कसीदे गढ़े हैं सदैव से”?
“कवियों ने न? क्योंकि वो दिल से सोचते हैं । लेकिन मालूम है अगाथा क्रिस्टी जैसी
क्राइम पर लिखने वाली लेखिका ने क्या कहा है ‘नेमेसिस’ में – ‘'Love! One of the most frightening words
there is in the world. Love...' “, मैंने मुस्कराते हुए कहा। “यहाँ तक कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने
निबंध में यह माना है कि समर्पण
श्रद्धालु की विशेषता है, प्रेमी की नहीं”। ‘‘पता नहीं यार, ये
तुम्हारे टर्म्स और व्याख्या ! इमोशन्स, प्रेम, मैत्री, रोमान्स...! साहित्य और समालोचना पढ़ते पढ़ते तुम्हारा
दिमाग खराब हो गया है – चलो चला जाये , हो गयी आज यहाँ की पढाई’’।
अरे! ये क्या, साढ़े छः बज गये, अब तो उठूं। आखिर ठीक
होगा आज उसको विश करना? उन वर्षों में तो मध्यरात्रि पर ही विश कर दिया करता था। परन्तु आज इतने
वर्षों बाद! वो तो इस फेसबुक, ह्वाट्सऐप के जमाने में अचानक दो तीन वर्षों पहले पता लगा कि कहाँ है, कितने बड़े बच्चे है,
नानी दादी तो नहीं बन गयी है, वरना कहाँ मालूम चलता। फिर
उसका नम्बर भी तो तभी मिल गया था परन्तु
तब भी शायद दो चार बार ही तो संदेशों का आदान प्रदान हुआ था – नितांत
औपचारिक , जैसे नव वर्ष पर या किसी त्यौहार पर बधाई। तब ये आज अचानक यह याद क्यों? विश करूं या न करू? अरे यह तो हैमलेट की वो soliloquy हो गयी- &^^to be or not to be” । विश करूं और कोई
रिस्पान्स भी न आये तो बहुत अखरेगा। उस दिन के बाद तो कभी इस तरह अपनेपन से विश
किया भी नहीं। ^^Wish you a lovely wedding** ही तो थी वो अंतिम
परितप्त विश।
कितने खटाश के दिन थे।
गलती भी मेरी ही थी शायद- नौकरी की रेस में बारम्बार असफलताओं से उत्पन्न अवसाद
शायद मैत्री पर भारी पड़ रहा था। और फिर उसका विवाह का तय हो जाना। यद्यपि वो
अप्रत्याशित भी नहीं था। आखिर उसके पसंद से वह विवाह हो रहा था और मैं उस से अनजान
भी नहीं था । परन्तु यह अचानक ही क्यों सब खराब लगाने लगा? लगा कि एक मित्र खो रहा
हूँ। ऐसा क्यों लगा? मैत्री तो स्वार्थ रहित होती है। वो पोजेसिव तो होती नहीं। हाँ प्रेम अवश्य पोजेसिव होता है। वो नहीं चाहता बांटना। उसे चिन्ता होती है कि वह हर न लिया जाय। तो
क्या यह मैत्री नहीं थी? क्या इसलिए उसका जाना खराब लग
रहा था- इतना खराब कि वर्षों की मैत्री मुझे खट्टी, बल्कि कसैली लगने लगी थी। घर आना
जाना भी कम हो रहा था, साथ घूमना भी। विभिन्न विषयों पर गर्म बहसें, जो कभी झगड़े
जैसा रूप ले लेती थीं , रुक गयी थी । फोन पर घंटों कि जगह मिनटों ने ले ली थी।
यद्यपि आज सोचता हूँ तो लगता है कि यह परिवर्तन एक तरफ़ा ही था, वो तो पहले की तरह
ही थी – प्रतिदिन की छोटी–छोटी बातों को साझा करना, सिविल सर्विसेज के आगामी
साक्षात्कार के लिए टिप्स देते रहना और, पढाई के लिए डांटते रहना। परन्तु, मेरे
व्यवहार और शब्दों में ताने और
उलाहने परिलक्षित होने लगे थे-अनायास। या फिर यों कहें कि वह सब कहना और करना जो
अब तक सरल हास्य और विनोदपूर्ण लगा करता था एकाएक व्यंग और कटाक्ष सा प्रतीत होने लगा । आखिर शब्द और क्रिया की
प्रकृति या अर्थ संबंधों के परिप्रेक्ष्य
में ही तो निर्धारित होता है ।
खैर, लेकिन आज क्यो? उठूं भी, अब आज तो हो चुकी जॉगिंग, इस स्वप्न और गतिमान
दिवास्वप्न के चक्कर में। क्या सोचेगी मुझे इतने वर्षों बाद विश करने पर। मैत्री
सम्बन्ध तोड़ने में मैं ही मुख्य दोषी था- अब लगता था। लेकिन क्या करूं शायद
परिस्थितियां ही ऐसी थी। यदि विश के रिस्पान्स में धन्यवाद भी न दिया उसने तो बहुत
बुरा लगेगा। सम्बन्ध समाप्त हो गये है- इस तथ्य पर मुहर लग जायेगी- जीवन के इस
मुकाम पर। लेकिन यह भी तो सत्य है कि जीवन ही अब कितना बचा है? कुछ वर्षों में
सेवानिवृत्ति , सुबह-शाम की सैर और, पौत्र पौत्री की चक्कलस। कुछ ही सम्बन्ध तो बनते
हैं जीवन में जो लगता है स्वार्थ रहित थे- निश्छल थे, उन्हें एकनॉलेज करने में
हर्ज क्या। ‘‘
अरे उठना नहीं है”, पत्नी ने रजाई खीचते हुए
कहा और, “हो गयी जॉगिंग!’’ के प्रेमासिक्त ताने के साथ बगल की टेबल पर चाय का कप और अखबार रखा । “हाथ में ये फोन लेकर
सोये थे क्या आज”? ‘‘अरे कुछ नहीं, एक पुराने मित्र को
बर्थडे विश करने जा रहा था”। और मैं ह्वाट्सऐप पर
टाइप करने लगा- ‘हैप्पी बर्थडे’ - इस
इन्तजार के साथ कि प्रेषण के बाद जल्द वो दो टिक नीले हो जाये।
डॉ स्कन्द शुक्ल
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