Friday, April 28, 2017

Karela/ करेला - Published on the Literaray page 'punarnava' of Dainik Jagran




करेला


'करेला'! कहीं से एक तेज़ आवाज आई  और, अचानक ही, सड़क पर तूफ़ान सा आ गया ।   तुरंत ही उसने रिक्शे को बायीं ओर मोड़ा, किनारे रोकते हुए  हैंडल पर लटकते रस्से के छल्ले को ब्रेक पर  सरका कर  लगाया  और, जब तक हम बच्चे कुछ समझ  पाते , एक ईंट का अद्धा उठा कर उन  भागते दो लड़कों की ओर दौड़ कर फेंका  जिधर से शायद वो आवाज़ आयी थी। कुछ क्षणों के लिए  सड़क पर चलते लोग और वाहन थम से गये, पर थोड़ी  ही  देर मेंवातावरण में हंसी के  साथ सब कुछ सामान्य  हो गया ।
वो गुस्से में  बुदबुदाते हुए वापस लौटा, रस्सी के छल्ले को ब्रेक पर से वापस हैंडल पर खिसकाते हुए रिक्शे की  ऊंची कड़ी  सीट पर बैठा और, स्कूल की ओर बढ़ चला ।
'क्या हुआ था?' हमने थोड़ी देर बाद पूछा । 'कुछ नहीं', उसने तेज़ी से पैडल मारते हुए जवाब दिया । ऐसा लगा कि उसका सारा  गुस्सा  उन पैडलों पर निकल रहा था ।
वह  था  मज्जी, हमारा  रिक्शेवाला जो हमे रोज़ स्कूल लाता - ले जाता था । नाटा कद, पीठ पर कूबड़, दबा रंग, सिर पर अस्त व्यस्त घने बालों वाला यह व्यक्ति प्रथम दृष्टया  कतई आकर्षक नहीं था ।
'क्या आपको कोई और नहीं मिला?', माँ ने पिताजी से तुरंत ही धीरे से पूछा था । 'मैंने उसके बारे में सब पता कर लिया है, अच्छा और भरोसे के लायक है और, यहीं पास में, एक फर्लांग पर रहता है’, उन्होंने आश्वस्त करते हुए कहा ।
'भैया चलो'!  अगली सुबह एक तेज़ पुकार आयी - ठीक उतने  समयजब  उसने आने को कहा था । जिस स्नेह से उसने बस्ते को अपने कंधे पर लेते हुए, पहली बार किसी अजनबी के साथ घर से बाहर निकल रहे पांच वर्ष के बालक की उंगली पकड़ी और बहलाते हुए रिक्शे की ओर बढ़ा, माँ का उसको लेकर सारा संशय  मिट गया । हौले  से  उसे  उठाकर उसने  रिक्शे  पर बैठाया और एक नए संबंध का सूत्रपात हुआ 
मज्जी  का  व्यवहार सभी बच्चों के प्रति अभिभावक का ही होता था  । स्वयं अपढ  होते हुए हुए भी परीक्षा के समय वो यह सुनिश्चित करता हुआ रिक्शा चलाता जाता था कि सभी  बच्चे अपने पाठ को दुहरा रहे हैं  । क्या मजाल कि कोई अनुचित  शब्द किसी के मुंह  से निकल जाए; और यदि ऐसा हो गया तो उसकी डांट के साथ साथ घर तक बात पहुँचनी भी निश्चित होती थी।
 रिक्शे की गद्दी  के नीचे का स्थान सभी  बच्चों  के लिए कौतूहल का केंद्र होता  था । गद्दी  उठाने पर वो बिलकुल दादी कि संदूकची जैसे लगता था । उसमें उसके  काम की ढेरों वस्तुओं  के साथ –साथ  इमली, अमरख, अमरुद, कच्ची अमियाँ जैसी बाल्य - रूचि  की चीज़ें  भी होती थीं ।  रिक्शे के बच्चों को होली पर  उसके द्वारा  तैयार  विशेष गाढ़े रंग, और दिवाली पर चुटपुटिया बजाने के लिए नट-बोल्ट से बने  यंत्र की प्रतीक्षा रहा करती थी । उसी संदुकची-नुमा जगह  में  एक बड़ी सी , पुरानी सी बरसाती भी रहती थी ।  बारिश में  प्रायः वह उस बरसाती से रिक्शे के उस भाग को तो ढँक देता था जहां बच्चे  बैठते थे और स्वयं भीगते हुए रिक्शा खींचता चलता था । असल में पैसों की कमी उसे अपनी सुविधाओं पर व्यय करने से रोकती जो  थी । 
उस रविवार तो वो बिलकुल बदले स्वरुप में था! करीने से कढे बाल, साफ़ और प्रेस किये कपड़े और, मुख पर एक चमक । वह  माँ से कुछ पैसे उधार लेने आया था । उसकी सगाई थी उस दिन, उसने शर्माते हुए बताया ।  
विवाह के कुछ ही दिनों बाद वो अपनी पत्नी को  माँ से मिलवाने ले आया । तीखे नैन-नक्श, साफ़ रंग और, दीप्तिमान आँखे - मेरी बाल-दृष्टि को भी वो भली लगी। जाड़े की उस दोपहर  महिलाओं की बात चीत का विषय वही रही । 'इतनी सुन्दर ! ये मज्जी जैसे व्यक्ति से विवाह को तैयार कैसे हो गयी !', उनमे से किसी एक की यह आश्चर्य-सिक्त अभिव्यक्ति  और, उस पर अन्य सभी महिलाओं का सहमति का भाव, उस विशद चर्चा का सार रहा ।
मज्जी ने रहने की जगह बदल दी । पुरानी जगह एक  नव-विवाहित जोड़े  के लिए उपयुक्त  नहीं थी । यह एक बड़े से खाली प्लाट के एक कोने पर उधड़ा-उजड़ा  सा, बिना रंग-रोगन, प्लास्टर -विहीन एक कमरा था । कुछ ही समय में वह उजाड़ सी जगह, जहाँ तब तक  मात्र एक अमरख का पेड़ था , एक छोटे से बगीचे  में परिवर्तित हो चली  थी । फूलों और मौसमी सब्जियों की  क्यारियों के साथ -साथ एक बकरी और एक पिल्ला , जिसे वह किसी कुड़ाघर के पास से सुअरों से बचा के लाया था , उस अदनवाटिका के अंग थे ।
उनकी पहली संतान हुई और मज्जी कि प्रसन्नता का ठिकाना न था । उसने आ कर माताजी को शुभ समाचार सुनाया और उन्होंने मोहल्ले की अपनी सहेलियों को । सुनकर किसी ने यह आशा व्यक्त की कि यदि वह बच्चा अपनी माँ पर जाय  तो कितना ही अच्छा हो  और सभी ने उसका समर्थन किया 
          यद्यपि अब मैं  साइकिल से स्कूल जाने लगा था , फिर भी कभी कभी उसके पास चला जाता था । अक्सर तब, जब साइकिल कि चेन में ग्रीस लगवानी होती थी या फिर अमरख - इमली आदि  खाने की इच्छा हो आती थी । परन्तु वो हमारे यहाँ नियमित रूप से आता रहता था । सप्ताह-दस दिन में एक बार तो अवश्य ही ।
समय  के साथ परिवार में दो  बच्चों की वृद्धि और हुई और, स्वाभाविक रूप से खर्चों में भी । बढ़ती उम्र के साथ मज्जी की शारीरिक श्रम की क्षमता भी कम हो रही थी  और, आमदनी भी । एक दिन जब वो मेरी माँ से अपनी समस्याओं को बता रहा था तो उन्होंने सलाह दी कि क्यों नहीं वो अपनी पत्नी से कहता कि वो भी कुछ घरों में कुछ काम पकड़ ले । 'अरे नहीं माताजी ! उसने भी  हमसे एक-आध बार यह कहा, लेकिन मैंने ही मना कर दिया... मैंने कह दिया है  कि अभी मेरे अन्दर उन सभी को खिलाने की ताकत है ।... ये दुनिया बहुत अच्छी नहीं है, माताजी! उसे घर- घर चौका-बर्तन नहीं करने भेजूंगा ।उसने उत्तेजित स्वर में बोला था ।
उम्र के साथ प्राथमिकताओं और रुचियों में परिवर्तन के साथ-साथ  न जाने क्यों वहां का वातावरण  अब पूर्व की भाँति आकर्षित करता हुआ महसूस नहीं होता था । पंहुचने पर उसकी पत्नी का तत्काल अन्दर चला जाना या खिड़की  और दरवाजे को परदे से ढँक लेना- ऐसा पहले तो नहीं होता था ! अब किसी आगंतुक की उपस्थिति मानों उसे भारी जान पड़ती थी ।

उसका मेरे घर आना भी काफी कम हो चला था । फिर भी, होली, दीपावली की त्यौहारी और ईद पर उसको कुछ पैसे देने के लिए उसको बुलवा भेजना मेरी माँ को कभी नहीं भूलता था । वो अभी भी पुराने, पहनने योग्य कपड़ों से  बर्तन वाले से बर्तन नहीं लेती थीं, बल्कि उसके लिए  रख देती थी । समय बीतने के साथ वह  और दुर्बल और बीमार ही होता जा  रहा था । बीड़ी पीना छोड़ने की सलाह पर वो मुस्करा कर बस कंधे उचका देता था, यह कहते हुए कि 'बस एक ही तो यह  नशा है । बड़ी राहत देता है ।'
रिक्शा खींचने  की ताकत नहीं रही थी अब उसमें । अपना रिक्शा उसने किराये पर उठा दिया था । उसकी पत्नी भी आस-पास के घरों में कुछ काम करने लगी थी। यह उसने एक दिन बहुत दुःख के साथ बताया ।
अंतिम बार उसे घर आये कुछ एक माह हुए थे कि एक दिन मालूम चला कि मज्जी नहीं रहा। 'उसे टी.बी. हो गया था', पिताजी ने बताया । मुझे दुःख हुआ । सोचा एक बार उसके घर हो आऊँ, देख लूँ कि शायद परिवार को किसी प्रकार कि सहायता की आवश्यकता हो ।
लेकिन जब मैं उसके घर जा पाया तब कुछ सप्ताह बीत चुके थे।  वहाँ चारो और सन्नाटा था। फूल और पौधे सूख गये थे। कहीं कोई हलचल नहीं थी। वे दो जानवर - बकरी और कुत्ता - भी  नहीं दिखे। पास जा कर देखा तो दरवाजे पर ताला मिला। मैं  वापस जाने के लिए उस प्लॉट से बाहर निकल ही रहा था कि एक बुजुर्ग से व्यक्ति को अपनी ओर देखते हुए पाया। ध्यान से देखने पर उन्हें पहचान गया। वो यहीं पड़ोस में रहते थे।
 'क्या आप मज्जी से मिलने आये थे ? ...आपको मालूम नहीं, ....वो तो गुजर गया कई दिन पहले ' - वे बोले। 'हाँ मैंने सुना था' - मैंने कहा। 'सोचा देख लूँ परिवार किस हालत में है' - मैंने आगे जोड़ा ।  'वो लोग तो कहीं चले गये सब सामान लेकर  ...शायद अपने गाँव'- उन्होंने बताया। 'ओह ! आखिरी समय बहुत तकलीफ में तो नहीं बीते उसके? टी.बी.थी उसे? ...अभी बहुत उम्र भी तो नहीं थी ...लेकिन बहुत लापरवाही किया शायद उसने अपनी सेहत के साथ?', मैंने चलते-चलते प्रश्न किया।  'हाँटी.बी. ही थी ...काम और कमाई दोनों ही बंद हो गयी थी इधर।  ...लेकिन सच बोलूँ तो केवल इतना ही नहीं था ...टी.बी. से तो वो अब जा कर मरा ...उसकी मौत तो शायद बहुत पहले हो गयी थी।' मैं विस्मय से उनकी बात सुन रहा था।'मैं तो कहता हूँ कि उसे इतनी सुन्दर महिला से विवाह  ही नहीं करना  चाहिए था।' दुनियावी अनुभव और अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ बात समाप्त कर वे आगे बढ़ गये।
-      डॉ स्कन्द शुक्ल
              24 एम. आई. जी., म्योराबाद आवास योजना (निकट नेहरू युवा केंद्र, कमलानगर),                                                                                                                          इलाहाबाद
published in Dainik Jagran date 17-4-17
 




No comments:

Post a Comment