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एहसास
निस्सीम फैला ऊसर और उस पर पसरी बैसाख की
अंतहीन धूप। यह मेरे जनपद का सुदूर वह क्षेत्र था जहॉ से नगर को उसके विकास के लिए
मिलती थी ईंट और, श्रमिक। उस कठिन
स्थान पर हुयी थी मेरी तैनाती। मन में कितनी प्रसन्नता थी जब सरकारी विद्यालय मंे
शिक्षिका की नौकरी मिली, कितना उत्साह!
उत्साह मात्र नौकरी मिलने का नहीं बल्कि उस आत्मविश्वास का , उस आशावाद का जो युवावस्था को परिभाषित
करता है।
विद्यालय
शहर में मेरे निवास स्थान से लगभग 30 किलोमीटर दूर था। बस तथा टैम्पो यात्रा के बाद लगभग एक किलोमीटर की
पदयात्रा कर वहाँ पहुचना होता था। बहुत कुछ करने की इच्छा थी और विश्वास था उन
नकारात्मक स्थितियों को बदल देने की जो हम सुनते, पढ़ते
रहते है। यह केवल अपने दायित्वों के बोध के कारण नहीं था वरन् मन में छोटे बच्चों
के प्रति स्वाभाविक स्नेह के कारण भी था।
वास्तविक
विद्यालयीय व्यवस्था और शिक्षा तन्त्र से मेरा प्रथम साक्षात्कार- दो कक्षीय, चहारदिवारी
विहीन भवन; कुछ दूर पर एक हैण्डपम्प और पास ही शौचालय, जिसके दरवाजों पर ताला जड़ा था। बुजुर्ग प्रधानाध्यापक ने मेरे अभिवादन का
उत्तर दिया और एक कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। आवाज सुनकर बगल के कक्ष से एक और
अध्यापिका आ गयीं। परिचय हुआ तो मालूम चला कि प्रधानाध्यापक सेवा निवृत्त होने
वाले है, और मेरी साथी अध्यापिका भी शहर से ही आती हैं
जहाँ उनके पति सरकारी अधिकारी थे।
‘‘ चलो बहुत अच्छा हुआ कि तुम यहां आ गयी,’’ उन्होंने
कहा, ‘‘ मैं तो सोच रही थी हेडमास्टर साहब के
रिटायरमेन्ट के बाद कैसे चलेगा। इतना तो काम है- पंजिकायंे तैयार करना, ढे़र सारे व्ययों का हिसाब-किताब रखना, मध्याहन
भोजन, यूनिफार्म, न जाने
क्या क्या और दिक्कते? बाथरूम तक तो है नहीं’’, वो बोलती ही जा रही थी। ‘‘ बच्चे कितने है?,’’ मैने पूछा क्योंकि विभिन्न उम्र के मुश्किल से 10 बच्चे ही बाहर मैदान में दिख रहे थे। बताया गया कि है तो 100 बच्चे नामांकित परन्तु इन दिनों विवाह-लग्न और गेंहू कटाई का समय होने के
कारण बहुत कम बच्चे विद्यालय आ रहे हैं।
मैने
अपने चारो ओर देखा- चमक खोती, बेरंग होती सफेद दीवारें जिन पर कुछ आदर्श वाक्य लिखे थे। सचमुच, टैगोर का विवरण- ‘‘ बेयर व्हाइट वाल्स
स्टेयरिंग लाइक आई-बाल्स ऑफ द डेड (मृतक की आँखों की तरह घूरती सूनी सफेद
दीवारें)- कितना सटीक बैठता था। आज भी!
‘‘ असल में पढ़ने में इनका मन ही नहीं लगता’’, साथी
अध्यापिका ने कहा। ‘‘ लाख समझाओं, पाठ समझ में ही नहीं आता, ‘‘प्रधानाध्यापक ने जोड़ा।
मैने उड़ती सी नजर बाहर डाली। किचेन-शेड में मध्याहन भोजन की तैयारी प्रारम्भ हो
रही थी। कुछ बच्चें वहीं ताक-झांक कर रहे थे।‘‘ कितने
ही बच्चे होंगे जिनका दिन का प्रथम भोजन यही मध्याहन-भोजन होता होगा,’’ मैंने सोचा। मास्लो की आवश्यकता-पदानुक्रम का ख्याल न जाने क्यों अचानक आ
गया।
विद्यालय
का समय हो चला था। हम सब बाहर चले आये, प्रार्थना जो होनी थी। बच्चों की संख्या 40 के आस पास हो चली थी। विद्यालयीय परिधान में बच्चे आड़ी-तिरछी लगी बटनंे, हाथों में झोला (जिसमें किताबों के साथ किसी-किसी में थाली भी दिख रही थी)
और कई उस गर्म मौसम में भी नंगे पैर पंक्तियों में खड़े थे।
प्रार्थना
के बाद बच्चे दो कक्षा कक्षों में अपने आप चले गये। मेरे कक्षा-कक्ष में कक्षा 1 और 2 के कुल 15 बच्चे थे टाट-पट्टी पर बैठे
हुये। ‘गुड-मार्निंग’ के
समवेत स्वर ने मेरा स्वागत किया। अंग्रेजी में अभिवादन का अपना अलग ही प्रभाव होता
है। अंग्रेजी का उपयोग न जाने क्यों सुनने वाले को
बोलने वाले में ज्ञान का आभास देने लगता है, मैने मन ही
मन चुटकी ली। बच्चों की आँखों में मेरे प्रति कोई आकर्षण का भाव नहीं था, हाँ जिज्ञासा अवश्य दिख रही थी। मैने बोला- ‘‘तुम
लोग मुझे जानते हो’’? कुछ ने ‘नहीं’ में गर्दन हिलायी, कुछ बस ताकते रहे और शेष अपने में मस्त थे। मैने उन्हें बताया कि मैं उनकी
नयी अध्यापिका हूँ। बच्चों के परिचय से मैंने प्रारम्भ किया। उनमें अधिकतर लड़कियाँ
थीं। भाइयों के बारे में पूछने पर मालूम हुआ कि कई उसी गाँव के प्राइवेट
विद्यालयों में पढ़ते हैं। सौ प्रतिशत नामांकन का एक पक्ष यह भी है, मुझे मालूम चला। सभी बच्चे आस-पास के क्षेत्र के थे और लगभग सभी के
माता-पिता मजदूरी करते थे अथवा गाँव में ही अपने छोटे-मोटे काम से अपनी जीविका
चलाते थे।
शिक्षा
सत्र का अन्तिम पक्ष चल रहा था अतः मुझे लगता था कि कुछ नया तो पढ़ाना नहीं है
बल्कि पूर्व में पढ़ाये गये पाठों की पुनरावृत्ति ही कराना है। पहले से सोची गयी
रूप रेखा के अनुसार कार्य आरम्भ किया। परन्तु स्थिति अच्छी नहीं थी। अक्षर ज्ञान
अति न्यून- पहचानने की ही समस्या थी, लेखन तो दूर की
कौड़ी थी। मैं बच्चों के पास जाकर उनकी पुस्तकें और कॉपी देखने लगी। ऐसा नहीं था कि
उन्हें वर्ष भर पढ़ाया ही नहीं गया था, क्योंकि अभ्यास
पुस्तिकाओं तथा कापियों पर कुछ कार्य किये गये थे और उन्हें जांचा भी गया था।
परन्तु सम्भवतः ऐसा इसलिए था कि शिक्षा अभियान के प्रयासों से इनमें से अधिकतर
बच्चे अपने-अपने परिवारों की पहली पीढ़ी थे, जो शिक्षा
की डेहरी पर कदम रखे थे। स्वाभाविक है कि घर पर इनका मार्गदर्शन करने वाला कोई
नहीं होगा। माँ-बाप यदि थोड़ा बहुत पढ़े लिखे भी होंगे तो भी दिन भर की हाड़-तोड़
मेहनत के बाद यह संभव नहीं होगा कि वे यह देख सकें कि बच्चे कुछ पढ़ लिख रहे हैं या
नहीं।
बस्तों
में बिना कवर चढ़ी पुस्तकें ( कुछ बोध के अभाव में, और
कुछ अखबारी कागज के अभाव में ), मुड़ी-तुड़ी पन्नों वाली
नोट बुक, खेलने के लिए गिट्टियाँ और कंचे, सस्ती पेन्सिलों ............... यही सब था। देखते-देखते उस प्यारी सी, छोटी से लड़की के पास पंहुची जो कक्षा में सबसे शान्त और थोड़ा अलग सी बैठी
थी- एक झोले में ठीक से रखी पुस्तकें और एक पुरानी डायरी, जिसे कॉपी के रूप में प्रयोग किया जा रहा था। अरे वाह! इसमे तो उसने
ढे़रों चित्र बना रखे थे। चित्र, जो यह बताने के लिए
बहुत थे कि उसमें चित्रकारी की विशेष प्रतिभा थी। पूछने पर बताया कि उसके पिता
कुम्हार हैं और माँ बरतनों पर चित्रकारी करती है और, यह
भी कि, उसे भी चित्र बनाना अच्छा लगता है। "तुम इतनी छोटी हो, इतने सुन्दर चित्र
कैसे बना लेती हो "? मेरे प्रशंसा-सिक्त
प्रश्न पर उसने बाल सुलभ शर्म के साथ प्यारी सी मुस्कान दी, आँखों में आ रहे अपने बालों को हाथ से पीछे कर अवधी में बोली- " जब
नाय आवत तो हमार अम्मा अंगुरी पकिड़ के बनवावथीं "।
मैं चित्रों को ध्यान से देख
रही थी- नदी पहाड़ युक्त सीनरी, पशु-पक्षी, चाक पर कुम्हार, डाक्टर... मैने पूछा- ‘अरे! टीचर का तुमने कोई चित्र नहीं बनाया?’ उसने ‘नहीं ’ में गर्दन हिलाई। आखिर क्यों, मैंने पूछा, ‘‘ क्या तुम्हें अध्यापक अच्छे
नहीं लगते?’’ उसने फिर से ‘नहीं’ में गर्दन हिलाई। ‘‘क्यों नहीं अच्छे लगते? मैंने आश्चर्य से मुस्कुराते
हुए पूछा। और वो- जैसे बरस
पड़ी- ‘‘ काहे कि, मैडम
जी तो पियार करतिन नाहीं। छूबौ नाहीं करतिन। एक दिन दौड़त-दौड़त हम गिर ग रहे, खून निकलत रहा तो दूरै से कहत रहिन- ‘उठाओ उठाओ’। एकौ पग नाहीं बढ़िन। डाक्टर मुला पियार से हाथ पकिड़ के चुप कराइन, जरकौ दर्द नाहिं भा दवा लगाइन...’’ वो बोलती जा
रही थी और सभी बच्चे हम दोनों को ध्यान से देख रहे थे. स्नेहिल स्पर्श का महत्व जो बड़े-बड़े व्याख्यान नहीं स्पष्ट कर
सके थे वो मेरे अन्दर तक पैठता जा रहा था. बचपन की
स्मृतियों में सम्मिलित हाथ पकड़ कर अक्षर लिखना सिखाने वाली , अच्छा लिखने पर गाल छूकर शाबासी देने वाली और खराब लिखने पर प्यार भरी
डांट पिलाने वाली टीचर का चित्र आँखों के सामने आ गया. ‘चाइल्ड-सेन्ट्रिक’,‘ चाइल्ड-फ्रेन्डली’ जैसे शब्द हवा में तैर रहे थे पर ‘चाइल्ड- लविंग’ कहीं दिख नहीं रहा था ! और मेरे मन में, बार-बार यह प्रश्न आ रहा था कि, कहीं ऐसा तो नहीं कि, इन विद्यालयों में शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच सामाजिक-आर्थिक अन्तर
हमें ‘ह्यूमेन’, यानी इस
सोपान में अपने से नीचे के प्रति दयावान और ‘पेट्रन’, होने का भाव तो ले आने कि अनुमति देता है परन्तु, ’अफेक्शनेट’ या स्नेहमयी होने के पहले ही ठिठक
जाता है ?
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स्कन्द
शुक्ल
दैनिक जागरण के
साहित्य पृष्ठ 'पुनर्नवा' पर
१० नवम्बर २०१४ को प्रकाशित ।
अच्छी और सच्ची रिपोर्ट। मर्मस्पर्शी।
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