---- आइये विचार करें, क्योंकि हम सब भी वृद्ध हो रहे-----
दो दशकों के बाद पुनः वही सब कुछ - रात भर जागना, डायपर बदलना, नेबुलाइज़ करना, वक़्त-बेवक्त दवाइयाँ देना, खड़े होने में-चलने में मदद करना, ऐसे लोगों से संपर्क स्थापित कर सलाह-मशविरा करना जो इसी तरह के अनुभवों से गुज़रे हैं या गुज़र रहे हैं...। दो दशक बाद इन दिनों मेरी पत्नी और मैं पुनः माता-पिता के दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। बस अंतर यह कि इस बार कोई शिशु नहीं है बल्कि हमारे जनक हैं। यह अनुभव पूर्व जैसा भी है, और बहुत अलग भी।
प्रेमचंद ने ‘बूढ़ी काकी' में सही ही लिखा है कि ‘बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है’।
बच्चों की तरह घुटनों और कोहनी को मोड़कर सोना, त्वचा का इतना नरम हो जाना कि बिस्तर का खुरदरापन भी घाव पैदा कर दे, आपके सरल निर्देशों - जैसे मुँह खोलने, कौर काटने या चबा के निगलने- को भी समझने में समय लेना, चीजों को याद न रख पाना, चिड़चिड़ा हो जाना, और जवाब देने या निर्देशों का पालन करने से इनकार कर देना जैसे व्यवहार पर तो कोई भी किसी शिशु के बारे में ही सोचेगा।
अपने किसी बड़े को इस स्थिति में देखकर अपने को यह विश्वास दिलाना बहुत मुश्किल होता है कि आपके समक्ष वस्तुतः एक बच्चा ही है। हम अभी भी उन्हें एक मजबूत व्यक्तित्व के रूप में देख रहे होते हैं क्योंकि हम बचपन से ही इसके आदी हो चुके हैं और यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है कि वे अचानक ही कमजोर हो गए हैं। यह भूलना बहुत मुश्किल है कि कुछ समय पहले तक आप हर चीज के लिए उनकी सलाह पर भरोसा करते थे। उनकी आवाज़ में अधिकार था और यद्यपि आप बड़े हो गए थे और दुनियादारी की समझ भी आ गयी थी तब भी आप अभी भी कभी-कभी मार्गदर्शन के लिए उन्हीं की ओर देखते थे।
बात ना मानने पर बच्चे पर तो आप चिल्ला सकते हैं, नाराज़गी दिखा सकते हैं लेकिन यहाँ यह संभव नहीं। आप इन्हें केवल बहला कर, फुसला कर ही अपनी बात मनवा सकते हैं। फिर ये शारीरिक रूप से बड़े और भारी हैं। आप बच्चे को तो उठा सकते हैं, उसे नहला सकते हैं, कपड़े बदल सकते हैं, लेकिन किसी बुजुर्गों को बैठाना और संभालना एक कठिन काम होता है।
उपर्युक्त अनुभव मुझे अपने देश में वृद्धावस्था के बारे में सोचने को मजबूर करता है।
यूएनएफपीए की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वर्तमान में 15 करोड़ (60 वर्ष और उससे अधिक आयु के) बुजुर्गों की आबादी को 2050 तक लगभग 35 करोड़ तक पहुंच जाने की उम्मीद है। स्वाभाविक है कि जैसे-जैसे जन्म दर कम होती जाती है और जीवन-प्रत्याशा बढ़ती जाती है, बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि होना तय है; लेकिन हमारे पास इस विशाल आबादी के लिए सपोर्ट स्ट्रक्चर नहीं है।
बुजुर्गों के लिए विशेष चिकित्सा सहायता प्रणाली का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। बड़े शहरों में ही जेरिएट्रिक विशेषज्ञ मौजूद नहीं हैं तो माध्यम या छोटे शहरों की कोई क्या कहे। हमारे देश के मेडिकल कोलेजों में जेरिएट्रिक विभाग नगण्य हैं। लोगों को यह मालूम ही नहीं है कि बुजुर्ग और वयस्क एक जैसे नहीं होते, और वे उतने ही भिन्न होते हैं, जितना एक बच्चा एक वयस्क से।
एकल परिवार तथा बच्चों का काम के लिए घर से दूर जाना सामन्य बात हो गई है। इन स्थितियों में बुज़ुर्गों का अकेला पड़ जाना उन्हें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील बनाता है। पार्किंसंस और अल्जाइमर बुजुर्गों में बहुत आम होते जा रहे हैं, लेकिन लोगों को इनके बारे में कोई जानकारी ही नहीं हैं।
बुजुर्गों के लिए ऐसी स्थिति में कोई सोशल सपोर्ट सिस्टम, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में, उपलब्ध नहीं है जहाँ वे अपनी भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक ज़रूरतों को पूरा कर सकें। मुझे याद है कि मेरे पिताजी हर महीने की पहली तारीख को बैंक इसलिए जाना चाहते थे कि वे अपने सेवानिवृत्त सहकर्मियों से भी मिल सकें।
प्रत्येक बीतते दिन हम सभी बूढ़े होते जा रहे हैं और बहुत अधिक समय नहीं है जब हम अपने माता-पिता की तरह वृद्ध और अशक्त हो जाएँगे। अब समय आ गया है कि हमारा समाज और पूरी व्यवस्था अपने बुज़ुर्ग नागरिकों के बारे में चिंतित हो। येट्स की कविता 'सेलिंग टू बाइज़ेंटियम' की वह पहली पंक्ति कभी भी चरितार्थ न होने पाए- ‘दिस कंट्री इज़ नॉट फॉर ओल्ड मेन।'
('अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस' के अवसर पर 'दैनिक जागरण' में मेरा यह लेख अंग्रेजी में पूर्व में 'द हिंदू' में भी प्रकाशित हुआ था, जिसका मैने हिंदी रूपांतरण किया)
डॉ स्कन्द शुक्ल