Wednesday, September 22, 2021

लड़की- 'सरस्वती' के नवीनतम अंक (अप्रैल-जून 2021) में प्रकाशित प्रसिद्ध अमरीकी कहानीकार ओ. हेनरी की कहानी ‘गर्ल’ का हिन्दी अनुवाद


-------------------------लड़की---------------------------------
कमरा नम्बर 962 के दरवाज़े पर लगे पारदर्शी से शीशे पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था – ‘रॉबिन्स एवं हार्टले ब्रोकर्स’। सभी क्लर्क जा चुके थे। पाँच के ऊपर का समय था, और इस वक़्त उस गगनचुम्बी बीस मंजिला कार्यालयीय इमारत में सफाई-कर्मी महिलाओं की फौज ने, उच्च नस्लीय पर्चरोन घोड़ों के झुण्ड सी धमक के साथ, धावा बोल रखा था। अर्ध-खुली खिड़कियों से नींबू-छिलकों, कोयले के धुंए और, लैंप जलाने के लिए इस्तेमाल होने वाले ट्रेन-आयल की महक लिए गरम हवा के झोंके आ रहा थे।
फर्स्ट नाईट शो और होटलों के भव्य पाम-रूम का शौक़ीन, पचास की उम्र, पृथुल काया और रंगीले मिजाज का रोब्बिंस, अपने पार्टनर से, उसके द्वारा प्रतिदिन उपनगर से शहर तक की जाने वाली यात्रा के आनन्द से ईर्ष्या का दिखावा कर रहा था।
“तुम शहर के बाहर रहने वाले लोगों के भी क्या मजें हैं”, उसने कहा। “इस उमस भरी रात्रि में भी मस्ती ही होगी– सामने पोर्च पर पसरी चांदनी, टिड्डों की आवाज़, खाना पीना और खूब सारी ड्रिंक्स।“
उनतीस के, गंभीर, दुबले -पतले, सुन्दर, कुछ परेशान से दिख रहे हार्टले ने भोंहें सिकोड़ीं और एक निःश्वास के साथ बोला –‘हाँ, फ्लोरल-हर्स्ट की रातें हमेशा ही खूबसूरत होती हैं, ख़ास तौर पर जाड़ों में।’
तभी एक रहस्यमय से व्यक्ति ने दरवाजे से प्रवेश किया और सीधा हार्टले के पास पंहुचा ।
“मैंने पता कर लिया है कि वह कहाँ रहती है,” उसने उस दिखावटी फुसफुसाहट के साथ घोषणा की जो एक जासूस को अन्य लोगों के बीच कुछ विशिष्ट दर्शाती है।
हार्टले ने उसे ऐसा तरेरा कि उसने तुरंत ही एक नाटकीय चुप्पी साध ली। परन्तु तब तक रोब्बिंस अपनी छड़ी ले चुका था और टाई-पिन को मनमाफिक ठीक कर, स्टाइल से सिर को झुका कर इशारा करते हुए महानगरीय आमोदों का आनन्द लेने बाहर निकल चुका था।
“यह है उसका पता”, जासूस ने सामान्य तरीके से कहा, क्योंकि अब आडम्बर दिखाने के लिए उसके इर्द-गिर्द कोई श्रोता मौजूद नहीं था।
मैली सी किसी नोट बुक से फाड़े हुए उस पेज को हार्टले ने अपने हाथ में लिया। उस पर पेंसिल से लिखा था – “विविएन अर्लिंग्टन, 341 पूर्व – स्ट्रीट, द्वारा श्रीमती मैक्कॉमस।”
“यह यहाँ एक सप्ताह पहले ही आयी है,” जासूस ने बोला।
“अगर आप और जानकारी के लिए इसका पीछा करवाना चाहते हैं तो वह भी मैं कर सकता हूँ , इस शहर में किसी भी अन्य जासूस से बेहतर। रोज के केवल सात डॉलर, और खर्च। प्रतिदिन की टाइप की हुई रिपोर्ट आप को उपलब्ध हो जायेगी ...”
“बस बस,” हार्टले ने उसे रोका। “यह उस प्रकार का केस नहीं है। मुझे केवल उसका पता चाहिए था। बताइए उसका कितना हुआ?”
“यह तो मात्र एक दिन का काम था, “ जासूस ने कहा। “बस एक 10 डॉलर का नोट बहुत है।”
हार्टले ने उसे पैसे दिए और विदा किया। इसके बाद वह तुरंत ऑफिस से निकला और पूरब की ओर जाने वाली इलेक्ट्रिक ब्रॉडवे स्ट्रीट-कार पकड़ी। शहर के बाहर ले जाने वाले विशाल मार्ग पर उसने पूरब की ओर जाने वाली गाड़ी पकड़ी जिसने उसे शहर के एक ऐसे खस्ताहाल हो रहे इलाके में पहुँचा दिया जिसकी पुरानी संरचना में कभी नगर के गौरव और वैभव का वास हुआ करता था।
कुछ दूर पैदल चलकर जल्द ही वह उस बिल्डिंग तक पहुँच गया जिसे वह ढूँढ रहा था। वह एक नया अपार्टमेंट था और सस्ते पत्थर से बने प्रवेश-द्वार पर तराशा हुआ भारी-भरकम नाम लिखा था, “वैलमब्रोज़ा”। सामने की ओर ही घुमावदार फायर-एस्केप था जिस पर घरेलू सामान, सूखते कपड़े और, गरमी से परेशान बाहर निकल आये रोते बच्चे लदे थे। विविध ढेर के बीच जहाँ-तहाँ पीले पड़ चुके रबड़ के पौधे ऐसे झाँक रहे थे मानो वे खुद ही समझ न पा रहे हों कि वे हैं क्या - जन्तु, वनस्पति या, कृत्रिम।
हार्टले ने ‘मैक्कॉमस’ नाम पर स्थित बटन को दाबा। सिटकनी कुछ ऐसे अटक अटक के खुली – एक क्षण आतिथ्य भाव से तो दूसरे क्षण संशयपूर्ण- मानो इस दुश्चिन्ता में हो कि आगन्तुक कोई मित्र है या कोई लेनदार, और उसे अंदर आने दें भी या नहीं। दरवाजा खुलते ही हार्टले अन्दर घुस गया और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा – उस बच्चे के जैसे जो सेब के पेड़ पर चढ़ता हुआ तभी रुकता है जब उसे अपना अभीष्ट मिल जाता है।
चौथी मंजिल पर एक फ्लैट के खुले दरवाजे पर उसे विविएन खड़ी दिखाई पड़ी। हल्के से सिर हिला कर और एक सहज मुस्कान के साथ उसने उसे अंदर आने के लिए आमंत्रित किया। हार्टले के लिए उसने खिड़की के पास एक कुर्सी रखी, और खुद वहीं ढँके-तोपे रखे फर्नीचर के किनारे ख़ूबसूरती से टेक ले कर खड़ी हो गयी।
हार्टले ने कुछ बोलने के पहले उसकी ओर एक त्वरित-समीक्षा करती प्रशंसात्मक दृष्टि डाली और मन ही मन महसूस किया कि चयन में उसकी पसन्द त्रुटिहीन रही है।
विविएन लगभग इक्कीस की थी । शुद्ध जर्मन रूप-रंग। करीने से कढ़े लालिमा लिए सुनहरे बाल- जिसका एक-एक रेशा अपनी विशिष्ट कान्ति और रंग के कोमल आरोह-अवरोह के साथ चमक रहा था। हाथी-दाँत जैसे उसके स्निग्ध-श्वेत रंग से सामंजस्य बैठाती उसकी समुद्र की तरह गहरी और नीली आँखें, किसी मत्स्यकन्या या किसी अनजान पहाडी नदी की परी का आभास करा रही थीं, जो इस दुनिया को निष्कपट शांति से देख रही हो। मजबूत काठी के साथ साथ उसमें नैसर्गिक लावण्य भी था। यद्यपि उसके रंग और शरीर की रूप-रेखाओं में अमरीका के उत्तरी क्षेत्र वाली स्पष्टता दिखती थी, उसमें ऊष्णीय क्षेत्र का भी कुछ प्रभाव था। आलस्य से भरी उसकी मुद्रा, आत्मसंतोष का भाव और, श्वसन मात्र में एक ऐसी सहजता, उसे प्रकृति की ऐसी उत्कृष्ट कृति और प्रशंसनीयता का अधिकार प्रदान करती थी जैसे किसी दुर्लभ फूल अथवा दबे हुए रंग वाले कबूतरों के बीच किसी श्वेत फ़ाख्ता को।
उसने सफ़ेद टॉप और गहरे रंग की स्कर्ट पहनी हुयी थी – हंस-कन्या वाली उस प्रसिद्ध परी-कथा में हंस-कन्या और राजकुमारी के छद्म-वेश जैसी।
“विविएन”, हार्टले ने विनती के से स्वर में उसे संबोधित करते हुए बोला, “तुमने मेरे पिछले पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया। एक सप्ताह तक ढूढ़ने के बाद तो तुम्हारा यह नया पता मिल पाया। तुमने मुझे अनिश्चय में क्यों रखा हुआ है, जब कि तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं तुम्हें देखने और तुमसे बात करने के लिए कितना व्याकुल था?
लड़की स्वप्निल दृष्टि से खिड़की के बाहर देखने लगी थी।
“मिस्टर हार्टले”, उसने कुछ हिचकिचाते से स्वर में बोला , “मैं आपसे क्या कहूँ , समझ नहीं पा रही। मुझे अहसास है कि आपका प्रस्ताव मेरे लिए बहुत लाभदायक है, और मुझे यह भी लगता है कि मैं प्रसन्न भी रहूँगी। पर फिर मन सशंकित हो उठता है। मैं एक शहर की लड़की हूँ, और मुझे अपने को एक छोटे से शांत कस्बे या उपनगर में बाँध कर रहने में डर लगता है।”
“अरे मेरी प्यारी,” हार्टले ने भावुकता से कहा, “क्या मैंने तुमसे यह नहीं कह रखा है कि जो भी तुम चाहोगी और, जो मेरी शक्ति में होगा, तुम्हें वह हर कुछ सुलभ होगा? जब भी तुम चाहो शहर आ सकती हो, थिएटर के लिए, शॉपिंग के लिए, अथवा अपने मित्रों से मिलने। मेरे ऊपर तुम्हें विश्वास तो है, है कि नहीं?
“पूर्णतया”, उसने एक मधुर मुस्कान के साथ अपनी उन स्पष्टवक्त नज़र को उस पर डालते हुए उत्तर दिया। मैं जानती हूँ कि आप अति सहृदय हैं और जो भी लड़की आप को मिलेगी वह बहुत सौभाग्यशाली होगी। मैंने आप के बारे में सब जान लिया था जब मैं मोंट्गोमरी परिवार के साथ थी।
“आह!”, हार्टले ने एक गहरी साँस ली और उसकी आँखें अतीत की स्मृति से चमक उठीं। “खूब याद है मुझे जब मैंने तुम्हें पहली बार मोंट्गोमेरी परिवार में देखा था। श्रीमती मोंट्गोमरी तो पूरी शाम तुम्हारी ही प्रशंसा करती रहीं। और फिर भी, वे शायद ही तुम्हारे साथ न्याय कर सकीं। उस रात्रि-भोज को तो मैं भूल ही नहीं सकता। विविएन, तुम मुझसे वादा करो। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ आओ। इस बात से तुम्हें कभी भी पछतावा नहीं होगा। कोई और तुम्हें इतना अच्छा घर न दे सकेगा।”
लड़की ने गहरी साँस ली और नीचे अपने जुड़े हुए हाथों को देखने लगी।
अचानक हार्टले शंका और ईर्ष्या से उद्विग्न हो उठा।
“विविएन, मुझे बताओ”, उसे ध्यान से देखते हुए वह बोला, “क्या कोई और है — कोई दूसरा भी है क्या?”
उसकी गर्दन और गालों पर गुलाबी लालिमा फैल गयी।
“आपको यह नहीं पूछना चाहिए मिस्टर हार्टले”, उसने कुछ असहजता से कहा। “पर मैं आपको बता देती हूँ। एक हैं – पर उन्हें कोई अधिकार नहीं है – मैंने उनसे कुछ भी वादा नहीं किया है।”
“नाम?”
“टाउनसेंड।”
“रफ्फोर्ड टाउनसेंड!” हार्टले ने भावावेश में अपने जबड़ों को कसते हुए बोला।
“आखिर वह तुम्हारे बारे में कैसे जान पाया? वह भी तब, जब मैंने इतना कुछ उसके लिए किया है...”
“उनकी ऑटो अभी-अभी नीचे रुकी है”, विविएन ने खिड़की की देहली पर झुकते हुए कहा। “वे अपने उत्तर के लिए आ रहे हैं। ओह, कुछ समझ नहीं आ रहा कि मैं क्या करूँ!”
किचन में बजती कॉल बेल की आवाज़ आयी। विविएन दरवाज़ा खोलने के लिए बढ़ी।
“तुम यहीं रुको,” हार्टले बोला। “मैं उससे हॉल में मिलता हूँ।”
टाउनसेंड अपने ट्वीड वस्त्रों, पनामा हैट, और काली घुमावदार मूछों में एक भद्र स्पेनिश दिख रहा था। वह तेजी से, एक बार में तीन-तीन सीढ़ियाँ चढ़ता आ रहा था। हार्टले को देखते ही वह रुक गया और असमंजस से ताकने लगा।
“वापस लौट जाओ,”, हार्टले अपनी तर्जनी से नीचे जाती सीढ़ियों को दिखाते हुए दृढ़तापूर्वक बोला।
“हलो!”, टाउनसेंड ने आश्चर्य दर्शाते हुए कहा। “अरे क्या हो रहा है? आखिर तुम यहाँ कैसे, बंधु?”
“वापस जाओ”, हार्टले ने कड़ाई से दुहराया। “जंगल का कानून। यह शिकार मेरा है।”
“मैं तो बस अपने बाथरूम में कुछ काम के संबंध में एक प्लम्बर के लिए आया था”, टाउनसेंड ने बहादुरी से उत्तर दिया।
“ठीक है,” हार्टले ने कहा। “ तुम इस झूठ का प्लास्टर अपनी विश्वासघाती आत्मा पर लगा सकते हो। लेकिन, यहाँ से वापस जाओ।”
हवा में तैर कर ऊपर पंहुचने के लिए कुछ दुर्वचन वहीं छोड़, टाउनसेंड सीढ़ियों से नीचे चला गया।
हार्टले पुनः मान-मुन्नवल करने वापस आ गया।
“विविएन,” उसने अधिकारपूर्वक कहा। “मुझे तुम चाहिए। मैं अब किसी प्रकार का इन्कार अथवा टाल-मटोल नहीं स्वीकार करूंगा।”
“आप मुझे कब ले जाना चाहते है?” उसने पूछा।
“इसी वक़्त। जितनी जल्दी तुम तैयार हो जाओ।”
वह सामने शांत खड़ी हो गयी और उसकी आँखों में सीधे देखते हुए बोली-
“जरा एक क्षण के लिए सोचिये,” उसने कहा, “जब तक आपके घर में हेलोइस मौजूद है तब तक क्या मैं वहाँ कदम भी रखूंगी?”
हार्टले अचकचा गया, जैसे उस पर कोई अप्रत्याशित वार हुआ हो। अपनी बांहों को मोड़ कर वह वहीं चहलकदमी करने लगा।
“वह चली जायेगी,” हार्टले ने कठोर उद्घोष किया। उसके माथे पर पसीने की बूँदें आ गयी थीं। “आखिर मैं उस औरत को अपने जीवन को नारकीय बनाने क्यों दूंगा? जब से मैंने उसे जाना है, मुझे एक दिन का भी चैन नहीं मिला है। तुम सही हो विविएन। तुम्हें अपने घर ले चलने के पूर्व मुझे पहले हेलोइस को हटाना पड़ेगा। लेकिन वह चली जायेगी। मैंने निश्चय कर लिया है। उसे अपने घर से निकाल ही दूंगा।“
“आप ऐसा कब करेंगे?”, लड़की ने पूछा।
हार्टले ने अपने दांतों को भींचा और माथे पर बल दिया।
“आज रात ही”, उसने दृढ़ता के साथ कहा। “आज रात ही मैं उसे बाहर का रास्ता दिखा दूंगा।”
“तब”, विविएन ने बोला, “मेरा उत्तर ‘हाँ’ है।“
उसने उसकी आँखों में एक मधुर और निश्छल दृष्टि से देखा। यह सब कुछ इतना शीघ्रता से हुआ कि हार्टले को विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि उसका समर्पण सच्चा था।
“वादा करो!” उसने भावुक होकर कहा, “अपने वचन और सम्मान के नाम पर।”
“मेरे वचन और सम्मान के नाम पर,” विविएन ने कोमलता से दुहराया।
दरवाजे पर वह मुड़ा और खुशी से उसकी ओर देखा, लेकिन, वैसे ही, जैसे अभी भी अपनी प्रसन्नता पर विश्वास न हो पा रहा हो।
“कल,” उसने अपनी उंगली को स्मरण-स्वरूप उठा कर बोला।
“कल”, उसने एक निष्कपट मुस्कान के साथ दुहराया।
एक घंटे चालीस मिनट के बाद हार्टले फ्लोरल-हर्स्ट स्टेशन पर ट्रेन से उतरा। दस मिनट पैदल चल कर वह एक सुन्दर, दो मंजिला कॉटेज के गेट पर था जो एक खूबसूरत लॉन के साथ लगा हुआ बनाया गया था। घर में प्रवेश करने के पूर्व ही वह एक महिला से मिला जिसकी काले चमकीले बालों वाली चोटियाँ थीं और जिसने हवा में उड़ता हुआ एक श्वेत समर-गाउन पहन रखा था। उसने किसी प्रत्यक्ष कारण के बिना ही उसकी गर्दन को लगभग दबा ही दिया था।
हॉल में प्रवेश करते ही उसने कहा : “मम्मा आयी हैं. उनके वापस जाने के लिए ऑटो बस आधे घंटे में आने वाला है। वे डिनर के लिए आयीं थीं, लेकिन यहाँ तो डिनर बना ही नहीं है।”
“मुझे तुम्हें कुछ बताना है,” हार्टले ने कहा। मैंने सोचा था तुम्हें थोड़ा आराम से बताएँगे लेकिन अब चूंकि संयोग से तुम्हारी माँ भी हैं यहाँ, तो मैं तुरंत बता देता हूँ।”
वह रुका और उसके कान में कुछ फुसफुसाया।
उसकी पत्नी चीख उठी। उसकी माँ दौड़ती हुई हॉल में आयी। चमकीले काले बालों वाली वह महिला फिर से चीखी- एक दुलारी बेटी और पति की प्यारी की हर्षित चीख।
“ओह मम्मा !”, वह हर्षोन्मत्त होकर जोर से बोली, “कुछ मालूम चला? विविएन हमारे यहाँ खाना बनाने के लिए तैयार हो गयी! वह वही है जो मोंट्गोमरी परिवार के साथ साल भर तक रही थी। और अब बिली डिअर,” उसने कहा, “तुरंत ही किचन में जाओ और हेलोइस को अभी विदा करो। पूरा दिन बीत गया, वह फिर आज सुबह से ही शराब पी कर पड़ी हुयी है”
--------------------##########-------------------------###########------------------
अनुवादक -
डॉ स्कन्द शुक्ल,
प्रयागराज।







Sunday, September 12, 2021

...And, this engraving is life-giving (published in HT East U.P. Edition 04-09-21)

...And, this engraving is  life-giving 
 

This was when steel was making ingress into middle class households – the 70s and early 80s. ‘Purane kapde lo, naye bartan lo’ (give old clothes, get new utensils) - the hawkers went calling, from lane to lane, on foot or on bicycles, carrying a sack of steel utensils. Old clothes were bartered for new kitchenware, and lots of haggling happened over the quantity, quality and size of the clothes to be exchanged for the various utensils. If the peddler was willing to give a small steel bowl for a set of small child’s cloth or a thali for a chiffon sari, the homemaker may not have been ready to settle for anything less than a big bowl for the child’s clothes and a weighty steel pan for the sari.

It was thus that people gradually accumulated essentials and built their homes.

The buyers usually got the name of the head of the family engraved on these utensils; even on as small an item as a spoon. While the peddlers used a small chisel and a hammer to perform the delicate job, the utensil shop owners did it with a hand-held machine which looked somewhat like today’s drilling machines used in our homes. As a small child, I always felt fascinated with that machine writing my father’s name on a new utensil with a typical ghirr sound.

When I grew up a bit and perhaps wanted things to call my own, I demanded that my name be put on the dishes to be purchased for my use. So the next time a tiffin-box, a small steel tumbler and, thali were bought for me, they bore my name.

But why were names engraved on the utensils in those days? The practice seems to have faded-away with the passage of time. 

I asked my mother the reason once, and she said, ‘so that they do not get mingled with the other utensils and get returned to the rightful owner when something is sent in them to the neighbours or they send something to us’. Actually, lending and borrowing of things of daily requirement and food items among neighbours was very common- so common that it wasn’t even noticed. The non-existence in those days of facilities like phones and home-delivery services, and availability of essentials like food-grains, sugar and kerosene oil only at the ration-shops, made the dependence of neighbours on each other inevitable if something fell short suddenly. It was ensured that things borrowed were returned in the same quantity (mostly in the same utensil) as soon as possible.

Small functions in a family like birthdays, Satya Narayan katha or Akhand Ramayan etc. also necessitated borrowing things like chairs, utensils and, pedestal fans from the neighbours.

Similar was the state in villages; rather, more pronounced. There, I remember, seeing the name of the family-head not only on utensils but also on cots, bed sheets, quilts and mattresses. With time I came to understand that it was because all these things were lent-borrowed during occasions like wedding ceremonies. Caterers and tent-house providers were businesses unheard of in those days.  A wedding ceremony was an occasion not limited to a family; it involved the whole village community.  It was an occasion involving the prestige not of one family, but the whole village.

Times have changed. Being friendly or well acquainted with one’s neighbours is quite uncommon. Social distances have grown over the years. Families are self-sufficient, and perhaps, therefore tend to be self-centered. The market is there for all your needs. The middle class has become affluent.

But, is it really that we do not need anyone now, and our nuclear families and the market are enough to make us comfortably wade through this morass called life? 

Covid has shown that it isn’t actually so. Society, friends and, neighbours are as relevant today as they were at any time in history.  Just think of a family in which all were so ill that even food was difficult to be cooked. Think of a family in which small kids had to be left at home while the parents were hospitalized. None could have done without helping hands.

Yes it’s true that those days of engraving one’s name on utensils are long past. However, the days of getting one’s name engraved on the heart of fellow beings shall never be over.  And, this engraving has always been life-giving.

n  Dr Skand Shukla