आज के 'अमर उजाला' के रविवासरीय में मेरा व्यंग-लेख -
साइकिल - अब और तब
(अमर उजाला हास्यरंजिनी (01/10/23)
“अजी हद्द है! आठ-नौ हजार दाम में केवल ये दो पहिये, जरा सी एक तिकोन प्लास्टिक की सीट, और बहु-कोणीय हैंडल! उन दिनों तो साथ में मडगार्ड, बड़ी सी गद्देदार सीट के पीछे कैरियर, और फ्रेम में एक डंडा भी लगा होता था। और तो और, दाम भी इतना नहीं होता था कि सुनकर किसी की आँखेंही बाहर निकल आयें।
कैरियर भी शुद्ध लोहा-लाट!इतना मजबूत कि कितने भी बड़े और भारी सामान लाद लो। उस पर गेहूँ के कनस्तर टिका कर पिसवाने ले जाना, या गैस के खाली सिलिंडर लाद लेना बहुत सामान्य था। सीधी-सादी हैंडल को पकड़ कर सीधा ही बैठा जाता था - पीठ को धनुषाकार बना कर नहीं। हैंडल पर टाँगे जाते थे सब्जी आदि सामान भरे झोले। हैंडल और सीट के बीच वाला डंडा भी कम उपयोगी न था। डंडे पर लगी एक छोटी सी सीटपर बैठे छोटे से बच्चे, और पीछे कैरियर पर बैठी पत्नी का दृश्य तो कैंटोनमेंट एरिया के आस-पास बहुत ही सामान्य था। अन्य लोगों के लिएभी, विशेष रूप से छात्रों के लिए,डबल और ट्रिपल सवारी आम बात थी।“
“अरे ज़माना बदल गया है साहब! उस जमाने की बात न करें। पॉलिथीन के इस समय में झोले में सब्जी! जब पैक्ड आटा है तो कनस्तर कौन लाद के ले जाए? वह भी आज के बच्चे? अरे उन्हें माँ-बाप आचार की तरह पालते हैं। धूप न लगे, गरमी न लगे, और घरेलू काम में समय खराब न हो कि पढाई में जरा भी नम्बर कम हो जाए। और कहाँ की डबल-ट्रिपल सवारी? एक असली दोस्त मिले तो पहले कि उसे आप, या वह आपको भार को ढो सकने को तैयार हो। अब तो वर्चुअल मित्र हैं-गेमिंग में दूर से पार्टनरशिप देने वाले, या फेसबुक, इन्स्टाग्राम पर लाइक चिपकाने वाले। तब की दोस्ती जैसी नहीं कि यदि दोस्त की साइकिल खराब हो जाये तो उसे छोड़कर आगे बढ़ जाने के बजाय ख़ुद भी अपनी साइकिल से उतरकर डुगराते हुए पैदल साथ देने लगते थे।
और एक बात - वह पुराने समय की हैंडल? आज के जमाने में किसका मेरुदंड सीधा रह गया है जो वह उस तरह से पीठ सीधी रख कर बैठ सके?”
मेरी समझ में भी अब नयी साइकिल की डिजाईन समझ आ गयी थी, और मैं अपने पसंद के रंग वाली देखने लगा।
- डॉ स्कंद शुक्ल