Sunday, December 24, 2023

Revering the Inanimate (published in The Economic Times -Speaking Tree column on the editorial page) date 22-12-23

Link - https://economictimes.indiatimes.com/opinion/speaking-tree/revering-the-inanimate/articleshow/106219917.cms

The above article was published in The Economic Times (Speaking Tree column on the editorial page).

The original version (before being edited for publishing) is here below-

Reverence towards all

There was quite an outrage in our country recently over Mitchell Marsh’ putting his feet on the World Cup trophy. The rest of the world, interestingly, was totally indifferent to the act. This shouldn’t be a surprise actually. The sentiment of reverence towards all things is an attribute particular to the Indian ethos. Whether it’s an artist stepping on the stage, a player entering the stadium, or a driver beginning on a journey, he or she bows in obeisance before embarking. It has been there in our subconscious since childhood to pick up a pencil or a book that has fallen down and immediately touch them to our foreheads in reverence. One can see the lawyers bowing their heads to the bench while entering or leaving the court rooms. And, these are all reflex actions performed without a thought.

Reverence towards all things – animate or inanimate – is part of our psyche. Perhaps it originates from the non-dualistic philosophy which has been expressed in these Mahavakyas, or great statements in the Upanishads -   Aham Brahmasmi – I am Brahman (the Absolute); Tat Tvam Asi – That Thou Art;  Ayam Atma Brahma – This Self is Brahman. These Mahavakyas convey the essential teaching of the Upanishads, namely, the individual self which appears as a separate existence, is in essence part and manifestation of the whole.

This reverence towards all things is perhaps that which makes us tolerant, large-minded and all encompassing. This is perhaps that on which the foundation of our belief in truth, justice and, dharma (right conduct) exists. This perhaps is the reason that one doesn’t dare lie when one holds Ganga jal in one’s palm.  And, this perhaps, is the basis of the adage in that famous story ‘Panch Parmeshwar’  by Munshi Premchand – ‘God himself speaks through the voice of the panchayat’

However, it seems that this sentiment of reverence has been undergoing abatement with the growth of consumerism and individualism; and with it the notions of truth, justice and dharma too seem to have been dissipating.

It’s essential therefore, that we do not lose our feelings of reverence for all; because losing it shall be sounding the death knell for both ourselves, and the society.

 

Dr (Skand Shukla)

 

Monday, October 2, 2023

साइकिल तब और अब published in Sunday Magazine of Amar Ujala

 आज के 'अमर उजाला' के रविवासरीय में मेरा व्यंग-लेख - 



साइकिल - अब और तब

(अमर उजाला हास्यरंजिनी (01/10/23)


“अजी हद्द है! आठ-नौ हजार दाम में केवल ये दो पहिये, जरा सी एक तिकोन प्लास्टिक की सीट, और बहु-कोणीय हैंडल! उन दिनों तो साथ में मडगार्ड, बड़ी सी गद्देदार सीट के पीछे  कैरियर, और फ्रेम में एक डंडा भी लगा होता था। और तो और, दाम भी इतना नहीं होता था कि सुनकर किसी की आँखेंही बाहर निकल आयें।


कैरियर भी शुद्ध लोहा-लाट!इतना मजबूत कि कितने भी बड़े और भारी सामान लाद लो। उस पर गेहूँ के कनस्तर टिका कर पिसवाने ले जाना, या गैस के खाली सिलिंडर लाद लेना बहुत सामान्य था। सीधी-सादी हैंडल को पकड़ कर सीधा ही बैठा जाता था - पीठ को धनुषाकार बना कर नहीं। हैंडल पर टाँगे जाते थे सब्जी आदि सामान भरे झोले। हैंडल और सीट के बीच वाला डंडा भी कम उपयोगी न था। डंडे पर लगी एक छोटी सी सीटपर बैठे छोटे से बच्चे, और पीछे कैरियर पर बैठी पत्नी का दृश्य तो कैंटोनमेंट एरिया के आस-पास बहुत ही सामान्य था। अन्य लोगों के लिएभी, विशेष रूप से छात्रों के लिए,डबल और ट्रिपल सवारी आम बात थी।“


“अरे ज़माना बदल गया है साहब! उस जमाने की बात न करें। पॉलिथीन के इस समय में झोले में सब्जी! जब पैक्ड आटा है तो कनस्तर कौन लाद के ले जाए? वह भी आज के बच्चे? अरे उन्हें माँ-बाप आचार की तरह पालते हैं। धूप न लगे, गरमी न लगे,  और घरेलू काम में समय खराब न हो कि पढाई में जरा भी नम्बर कम हो जाए। और कहाँ की डबल-ट्रिपल सवारी? एक असली दोस्त मिले तो पहले कि उसे आप, या वह आपको भार को ढो सकने को तैयार हो। अब तो वर्चुअल मित्र हैं-गेमिंग में दूर से पार्टनरशिप देने वाले, या फेसबुक, इन्स्टाग्राम पर लाइक चिपकाने वाले। तब की दोस्ती जैसी नहीं कि यदि दोस्त की साइकिल खराब हो जाये तो उसे छोड़कर आगे बढ़ जाने के बजाय ख़ुद भी अपनी साइकिल से उतरकर डुगराते हुए पैदल साथ देने लगते थे।

और एक बात - वह पुराने समय की हैंडल? आज के जमाने में किसका मेरुदंड सीधा रह गया है जो वह उस तरह से पीठ सीधी रख कर बैठ सके?”

मेरी समझ में भी अब नयी साइकिल की डिजाईन समझ आ गयी थी, और मैं अपने पसंद के रंग वाली देखने लगा।


- डॉ स्कंद शुक्ल