Tuesday, October 26, 2021

आखिर कितनी जमीन? (लियो टॉलस्टॉय की प्रसिद्द कहानी ‘How much land does a man need’ का हिन्दी अनुवाद)- 'प्रयाग पथ के दसवें अंक में प्रकाशित)

 

बड़ी बहन अपनी छोटी बहन से मिलने शहर से आयी थी। बड़ी एक व्यापारी की पत्नी थी और छोटी एक किसान की। दोनों बाते कर रही थीं और बड़ी अपनी शहरी ज़िंदगी का बखान करते नहीं थक रही थी- कितना आरामदायक जीवन है, बच्चों के पास एक से एक बढ़िया कपड़े, एक से एक खाने की चीजें, और वे स्केटिंग और थिएटर भी जाते हैं।

छोटी को यह सब अखरा तो उसने बड़ी के जीवनचर्या को कमतर दिखने के लिए अपने ग्रामीण जीवन के गुण गाने शुरू कर दिए।

“देखो दीदी, मैं तो कभी अपनी ज़िंदगी को तुम्हारे से नहीं बदलना चाहूंगी”, उसने कहा। “हाँ, यह सही है कि यहाँ के जीवन में बहुत रोमांच नहीं होता, पर यह भी सच है कि तुम लोगों को अपने इस उच्च स्तर के जीवन को बनाये रखने के लिए बड़े-बड़े कारोबार में लगे रहना पड़ता है और यदि नहीं तो फिर बरबादी भी होना तय होता है। अब लाभ हानि तो आती जाती चीज़ें हैं, आज कोई महल में है तो कल सड़क पर। लेकिन देहात के जीवन में ऐसा कुछ नहीं है। भले ही यहाँ कोई रईस न हो, पर सबके पास पर्याप्त होता है।”

बड़ी ने तुरंत कमर कस ली।

‘पर्याप्त?’, सचमुच?”, उसने ताना दिया। “ ‘पर्याप्त!’ – बस यही सूअर और बछड़े? ‘पर्याप्त!’, बिना सुन्दर वस्त्रों और अमीर साथियों के? सुन लो, तुम्हारा पति चाहे जितना मेहनत कर ले, तुम लोगों को इसी कीचड़ में ही जीना और मरना है- हाँ, और तुम्हारे बाद तुम्हारे बच्चों को भी।”

“ऐसा नहीं है”, छोटी ने जवाब दिया। यद्यपि हम कम में ही रहते हैं, कम से कम जमीन तो अपनी है और हमें किसी के सामने झुकने की जरूरत तो नहीं है। लेकिन वहाँ शहर में अनैतिकता का ही वातावरण है। अब कहीं  किसी दिन किसी की बुरी नज़र लग जाए और तुम्हारे पति जुए या शराब के चक्कर में पड़ कर सब गवां दें तो  तुम लोग बरबाद ही हो जाओ। क्या ऐसा नहीं है?”

पाखोम, छोटी बहन का पति, भट्टी के पास बैठा सब सुन रहा था।

“बात तो सही है”, उसने कहा। “बचपन से ही मैं किसानी कर रहा हूँ, और इसलिए कभी दिमाग में किसी खुराफात का ख्याल भी नहीं आया। बस मुझे ज़िंदगी से एक ही शिकायत है- बहुत थोड़ी ज़मीन होना। बस मुझे खूब जमीन मिल जाये तो मुझे दुनिया में किसी से डर नहीं- शैतान तक से नहीं।

दोनों महिलाओं ने अपनी चाय ख़त्म की, कुछ देर और बात करती रहीं और फिर बर्तन धुल के सोने चली गयीं ।

इस दौरान शैतान चूल्हे के पीछे बैठा सब सुन रहा था। उस किसान की घमंड भरी बात सुन कर, कि एक बार यदि उसे जमीन मिल जाय तो शैतान तक उस से वह जमीन नहीं ले सकता, उसकी बांछे खिल गयीं ।

“बहुत बढ़िया!” शैतान ने प्रसन्न होकर मन में सोचा। “मैं तुम्हें खूब सारी जमीन दूंगा और तब देखते हैं कि मेरे चंगुल में तुम आते हो कि नहीं।“

इन छोटे किसानों के समीप ही एक भूस्वामिनी रहती थी जो 300 एकड़ से भी अधिक क्षेत्रफल की जमीन की मालकिन थी। उसका इन छोटे किसानों से सम्बन्ध ठीक था परन्तु इधर उसने एक ओवरसियर रख लिया था जो इन सब पर जुर्माने लगा-लगा कर परेशान करने लगा। पाखोम कितना भी सावधान रहे उसका कोई न कोई घोड़ा उस भूस्वामिनी के खेत में घुस जाता था, या कोई गाय उसके बागीचे में चली जाती थी, या फिर कोई बछड़ा ही उसके चारगाह में चरने लगता था। और इन सबके लिए उसे जुर्माना भरना पड़ जाता था। जुर्माना तो वह भरता, और फिर उसकी चिढ़ वह घर वालों पर निकालता।

उसी जाड़े में एक खबर फ़ैली कि वह महिला अपनी जमीन बेच रही है और वह ओवरसियर उसे खरीदने का प्रयास कर रहा है। इस से सभी किसानों परेशान हो गये। उन सभी के मन यह ख्याल आया कि जब यह कारिंदे की हैसियत में उन्हें इतना परेशान कर रखा है तो फिर जमींदार हो कर तो और दिक्कत कर देगा। उन्होंने निर्णय किया कि सब मिल कर उस जमीन को खरीद लें।

वे उस भूस्वामिनी से इस प्रस्ताव के साथ मिले और वह इस पर सहमत हो गयी।

परन्तु शैतान की कारगुजारी का यह कमाल रहा कि वे सब मूल्य आदि पर आपसी सहमति नहीं बना पाए।

खैर तब इन किसानों ने यह निर्णय लिया कि अपने सामर्थ्य के अनुसार वे अलग­-अलग ही अब जमीन लेंगे।

सब की देखा-देखी पाखोम ने भी लगभग 40 एकड़ जमीन का एक टुकड़ा पसंद किया।100 रूबल तो घर पर ही बचत के रखे हुए थे। एक घोड़े के बछड़े और अपनी आधी मधुमक्खियाँ को बेच कर कुछ और पैसे जुहाये, अपने बेटे को मजदूरी पर चढ़ा कर कुछ पेशगी प्राप्त की, और तब यह कुल ले कर उस भू-मालकिन से मिलने गया। बात तय हो गयी, और वह जमीन का मालिक हो गया। शहर में रह रहे अपने साढू से बीज के लिए कुछ पैसे उधार ले कर उसने अपनी इस नयी जमीन पर बुवाई की । अच्छी फसल हुई और साल भर में ही वह समस्त ऋणों से मुक्त भी हो गया। कितना अपना था सब। वह जो जमीन जोतता-बोता था वह उसकी अपनी थी, जो घास कटता था वह उसकी अपनी थी, चूल्हे के लिए जो लकड़ियाँ ले आता था वह उसकी अपनी थी और, जो मवेशी चराता था वे भी उसी के थे। खेत जोतने अथवा फसल का मुआयना करने जब भी वह घोड़े पर बैठ कर अपनी जमीनों की ओर निकलता, उसका उल्लास देखते ही बनता था। उसे अपनी जमीन का तृण-तृण अन्य स्थानों से अलग लगता, फूलों का खिलना तक अलग लगता। पहले जब वह उस जमीन पर चलता था तो वह बस जमीन भर थी; वह जमीन तो अभी भी थी, पर अब, बहुत अलग सी।

इस तरह सब चलता रहा और पाखोम बहुत खुश था। सब कुछ ठीक रहता भी यदि इन पड़ोसी किसानों ने उसे चैन से रहने दिया होता। कभी उनके मवेशी उसकी चारगाह में घुस जाते, तो कभी खेतों में उनके घोड़े। कितनी बार तो पाखोम ने उन्हें बाहर खदेड़ा और मामले को अनदेखा कर दिया। पर आखिर कब तक? धीरज खो कर उसने अदालत में शिकायत दर्ज करा दी। यद्यपि वह समझता था कि वे लोग ऐसा किसी बदनीयती से नहीं करते थे, और ऐसा उनके पास जमीन की कमी से ही होता है, लेकिन फिर भी उन्हें सबक सिखाना अब आवश्यक हो गया था।

उसने एक को अदालत में सबक सिखाया, फिर दुसरे को; एक पर जुर्माना लगवाया, फिर दूसरे पर। इससे उसके पड़ोसी पाखोम के विरुद्ध हो गये और वे जानबूझ कर इसको तंग करने लगे। कभी कोई उसके खेत में घुस जाता तो कभी कोई उसके पेड़ों को नुकसान पंहुचा देता। एक दिन किसी व्यक्ति ने उसके दस पेड़ों को समूचा नष्ट कर डाला। पाखोम जब अपने घोड़े पर उधर निकला और उसने अपने पेड़ों की यह हालत देखी तो उसका रंग ही उड़ गया। पास जाकर देखा तो पाया कि किसी दुष्ट ने सभी की, सभी डालें, और तना काट कर इधर उधर फेंक दिया था। केवल ठूंठ ही दिख रहे थे। उसका क्रोध चरम पर था। वह सोचने लगा कि ऐसा कौन कर सकता है। ‘यह सेमका ही हो सकता है’, सोचते सोचते उसने अचानक निश्चय कर लिया। वह तुरंत सेमका के घर जा पहुँचा, लेकिन वहाँ सेमका के अपशब्दों के अतिरिक्त उसे कुछ प्राप्त न हुआ। जितना भी वह सोचता उतना ही अधिक उसे विश्वास होता जाता कि यह कृत्य सेमका ने ही किया है और अंततः उसने उसके खिलाफ अदालत में शिकायत कर दी। मुकदमा सुना तो गया परन्तु सेमका को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया। अब तो पाखोम ने मजिस्ट्रेट पर ही अपना गुस्सा निकाल दिया और उनके ऊपर सेमका से दुरभि संधि का आरोप लगा दिया। हाँ, इसमें अब कोई संदेह नहीं था कि पाखोम के संबंध सब से खराब हो चुके थे- पड़ोसियों से भी और मजिस्ट्रेट से भी।  वह अपने समुदाय से अलग थलग रहने लग गया।

एक दिन ऐसा हुआ कि पाखोम अपने ओसारे में बैठा हुआ था कि एक परदेसी किसान आया। पाखोम ने अतिथि का यथोचित सत्कार किया। भोजन के दौरान बातचीत में पाखोम ने जब उस से पूछा कि वह कहाँ से आ रहा है तो उसने बताया कि वह वोल्गा नदी के उस ओर से आ रहा है जहाँ वह नौकरी करता था। बातचीत के क्रम में उसने यह भी बताया कि वहां एक नयी बस्ती बस रही है और इस नए मीर (कृषक समुदाय) में प्रत्येक व्यक्ति को लगभग 30 एकड़ जमीन आवंटित की जा रही है। “क्या ज़मीन है वहाँ! और क्या गेहूं उगाती है वह धरती! गेहूं के पौधे इतने ऊँचे कि घोड़े छिप जाएँ उनमें! और उनके तने इतने मोटे कि पांच मुट्ठी से ही पूरा बोझ बन जाए! अब ऐसे समझें आप कि एक किसान वहाँ आया तब उसके पास  पास अपने दो हाथों के अलावा कुछ भी नहीं था और आज उसके पास गेहूं उगातीडेढ़ सौ एकड़ जमीन है; और पिछले साल तो उसने पांच हजार रूबल केवल गेहूं से ही कमाए!”

इन बातों को सुनकर पाखोम की आँखें चमकने लगीं और वह मन में सोचने लगा: ‘जब ऐसी जगह उपलब्ध है जहाँ मैं इतने बढ़िया तरीके से रह-बस सकता हूँ तो मैं यहाँ, इस तंग जगह पर, दरिद्रता के साथ क्यों रहूँ? मैं तो यहाँ की जमीन और घर बेच-बाच कर वहीं जा कर एक नया घर बनाऊंगा और वहीं खेती के लिए जमीनें लूंगा। इस बेकार की जगह से मुक्ति पाऊंगा। खैर, एक बार उस स्थान को देख कर सब पता तो कर आऊँ ही।’

तो अगली गर्मियों में ही पाखोम स्टीमर से वोल्गा नदी पर यात्रा कर समर पहुँचा और फिर वहां से ढाई सौ मील का सफ़र और तय करके उस स्थान पर पहुँचा। वह बिलकुल वैसा ही था जैसा कि वर्णित किया गया था। सभी लोग बड़े मजे में रहते दिखे। और यह बात पूरी तरह सही थी कि उस मीर में 30 एकड़ भूमि प्रत्येक बसने वाले को मुफ्त आवंटित कर दी जाती थी। बल्कि उसे यह भी बताया गया कि कोई भी व्यक्ति इसके अतिरिक्त जमीन भी पैसे से खरीद सकता है। और मूल्य? मात्र तीन रूबल प्रति एकड़!

पाखोम वापास लौटा और आते ही उसने अपनी जमीनों को बेचना शुरू कर दिया। वह अपनी सारी जमीन, घर, और अन्य सब सामान जल्द बेचने में सफल तो रहा ही बल्कि उसे पैसे में भी लाभान्वित हुआ। मौजूदा मीर के दस्तावेजों से उसने अपना नाम खारिज कराया और बसंत आते ही सपरिवार अपने नए ठिकाने कि ओर चल पड़ा।

पाखोम का नाम इस नए मीर में दर्ज कर लिया गया और उसके परिवार के सदस्य संख्या के आधार पर प्रति व्यक्ति 30 एकड़ भूमि के अनुसार डेढ़ सौ एकड़ बढ़िया कृषि-भूमि आवंटित कर दी गयी; साथ ही एक साझा चारगाह भी।

नए स्थान पर पाखोम ने और भी उन्नति की। पर कुछ ही समय में उसका प्रारंभिक उत्साह उकताहट में परिवर्तित होने लगा। वह अपने कई साथी किसानों की तरह  सफ़ेद तुर्की गेहूँ की फसल उगाना चाहता था। यद्यपि उसको आवंटित जमीनें बहुत अच्छी थीं पर वे इस किस्म की फसल के लिए उपयुक्त न थीं। अतः उसने तय किया कि वह पट्टे पर जमीन लेकर सफ़ेद तुर्की गेहूँ बोयेगा। पुनः बहुत अच्छी फसल हुयी। पाँच वर्ष तक ऐसे ही चलता रहा लेकिन पाखोम अभी भी संतुष्ट न था। वह हर वर्ष पट्टे कराने के चक्कर की झिक-झिक से ऊब चुका था और वह अब किसी बड़ी भू-सम्पत्ति की तलाश में था जिसे वह खरीद सके और इस समस्या से मुक्ति पा सके।

इसी दौरान एक दिन उधर से गुजरता हुआ एक व्यापारी अपने घोड़े के चारे-पानी के लिए उसके घर के आगे ठहरा। चाय के साथ-साथ बातचीत भी होती रही । व्यापारी ने  बताया कि वह बहुत दूर से आ रहा है- बश्कीरों के देश से, और वहाँ, उसने कहा, उसने मात्र एक हज़ार रूबल में पंद्रह सौ एकड़ जमीन खरीदी है। पाखोम ने उत्सुक हो कर और जानना चाहा तो व्यापारी ने विस्तार से उत्तर दिया। “बस मैंने यह किया कि, वहाँ के बुजुर्गों को कुछ भेंट दी जैसे कि कुछ लम्बे कोट, कालीन, चाय की पेटी और, इसके अलावा करीब सौ रूबल ऐसी ही बाँट दिया। जिनको पसंद थी उन्हें थोड़ी वोदका भी उपहार में दे दी। और बस, मुझे जमीन मिल गयी।” बताते हुए उसने उसका बैनामा भी दिखाया। “सारी जमीन नदी के किनारे, और बढ़िया उपजाऊ घास के मदान का विस्तार!”, उसने जोड़ा।

‘ऐसा नहीं कि केवल यही जमीन जो मैंने ली वह ही इतनी बढ़िया है । बश्कीरों के क्षेत्र में सारी भूमि ही ऐसी  है। और तो और, वहाँ के लोग भेड़ जैसे सीधे-सादे। मूल्य का तो कोई सवाल ही नहीं, चाहे जितने में जितना चाहो ले लो।”

पाखोम अधीर हो उठा। उसने उस स्थान पर पहुँचने का मार्ग समझा और उस व्यापारी के  प्रस्थान करते ही  वह वहाँ की यात्रा के लिए तैयार हो गया। उसने केवल एक सेवक को साथ लिया और निकल पड़ा। सबसे पहले शहर से चाय की पेटी, वोदका और अन्य उपहार लिए और तब आगे की यात्रा पर बढ़ा। सातवें दिन वे लोग बश्कीरों के क्षेत्र पहुँचे।

सब कुछ वैसा ही था जैसा कि उस व्यापारी ने बताया था। घास के मैदानों का अंतहीन विस्तार और बीच से गुजरती नदी। और, झुण्ड के झुण्ड मवेशी और उत्तम नस्ल के कॉसैक घोड़े उन पर चरते हुए। बश्कीर वैगन रूपी घरों में रहते थे और कई ऐसे गाड़ी-नुमा घर नदी किनारे खड़े थे। वे खेती नहीं करते थे। उनका मुख्य भोजन घोड़ी के दूध से बना पनीर अथवा कुमिस नामक पेय पदार्थ था जो बश्कीर महिलाएं तैयार करती थीं। सच तो यह था कि बश्कीर केवल दो ही पेय पदार्थ जानते थे – कुमिस और चाय, मटन ही उनका एकमात्र ठोस आहार था, और पाइप वाद्ययंत्र बजाना एकमात्र आमोद। सभी स्वस्थ और प्रसन्नचित, और उनका पूरा जीवन ही किसी अवकाश सा आनंददायक था। उनमें शिक्षा का अभाव था और वे रूसी भाषा ज़रा भी नहीं जानते थे, फिर भी वे उदारता और सज्जनता से परिपूर्ण आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे।

जैसे ही उन लोगों ने पाखोम को देखा वे अपने-अपने वैगन से निकल के आ गये और उसे घेर लिया।एक दुभाषिये को ढूंढ लाया गया। पखोम ने जब उसे बताया कि वह जमीन खरीदने आया है तो वे सब बड़े खुश हुए और उससे गले मिले। उसे तुरंत एक विशिष्ट वैगन में ले जाया गया जिसमें बढ़िया कालीन और मुलायम मसनद थे। उसे प्रेम से बिठाया गया और चाय और कुमिस से स्वागत किया गया। तुरंत ही एक भेड़ को मारकर अतिथि के लिए भोजन तैयार हुआ जिसके बाद पाखोम ने सभी को वे उपहार बांटे जो वह इस हेतु ले आया था। बश्कीर आपस में बात करने लगे और फिर उन्होंने दुभाषिये को बोलने को कहा।

दुभाषिये ने कहा- “सभी लोग आपसे मिल कर बहुत खुश हैं और अतिथि से प्राप्त भेंट के प्रति उसकी इच्छाओं को पूरा करना हमारा धर्म है। आपने हम सब को उपहार दे कर हम सबका मन जीत लिया है, अतः बताइये कि ऐसा क्या है जो आपको चाहिए और हम आपको दे सकते हैं।”

“मुझे केवल आपकी कुछ जमीनें चाहिए”, पाखोम ने उत्तर दिया। “मैं जहां से आ रहा हूँ वहाँ खेती करने के लिए जमीन की बहुत कमी है, जबकि आपके यहाँ बहुत जमीन है और वह भी इतनी अच्छी कि ऐसी तो मैंने पहले कभी देखी ही नहीं।”

दुभाषिये ने इसका अनुवाद किया और सभी आपस में फिर से बात करने लगे। पाखोम उनकी बातें तो नहीं समझ पा रहा था लेकिन यह उसे स्पष्ट दिख रहा था कि वे बहुत खुश थे और बहुत हँस- हँस कर बातें कर रहे थे। थोड़ी देर बाद वे अपनी बातें समाप्त कर उसकी तरफ देखने लगे, और दुभाषिये ने बोलना शुरू किया।

“मुझे यह बताने को कहा गया है कि, आपके सहृदयता के फलस्वरूप, हम आपको उतनी जमीन बेचने को तैयार हैं जितनी भी आप चाहें। आपको बस अपने हाथों से इशारा करना है कि कितनी और वह सब आपकी होगी।“

तभी वे लोग आपस में फिर से कुछ बात करने लगे और अब ऐसा लगा जैसे कि किसी बात पर कोई विवाद हो रहा है। पखोम ने जब यह जानना चाहा कि क्या हुआ तो दुभाषिये ने बताया कि इनमे से कुछ का यह विचार है  कि जमीन पर निर्णय लेने के लिए उनके प्रमुख से नहीं पूछा गया है और उनसे पूछ के ही निर्णय लिया जाना चाहिए, जबकि अन्य का मानना है कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।

उन लोगों में विचार-विमर्श चल ही रहा था कि तभी एक व्यक्ति  ने प्रवेश किया जो एक विशेष प्रकार की टोपी पहने था। सभी लोग उसे देख कर उसके सम्मान में खड़े हो गए। दुभाषिये ने पखोम को धीमे से बताया कि यही बश्कीर के प्रमुख हैं। सुनते ही पाखोम ने अपने बैग से सबसे बढ़िया लॉन्ग कोट और चाय का एक डिब्बा  निकाला और प्रमुख को पूरे आदर के साथ भेंट किया। प्रमुख ने उन्हें स्वीकार किया और अपना निर्धारित स्थान ग्रहण किया। इसके बाद उसने कुछ देर अपने लोगों की बातें-समस्याएं सुनीं और उसके बाद पाखोम से मुस्कराते हुए मुखातिब हुआ और रूसी भाषा में बोला।

“बहुत अच्छा,” उसने कहा, “आप कोई भी जमीन चुन लें, जहाँ भी आप चाहें। हमारे पास बहुत जमीन है।”

‘हम्म, तो मैं चाहे जितनी जमीन चाहूँ ले सकता हूँ!’, पाखोम ने मन में सोचा। ‘फिर भी मुझे सब पक्का कर लेना चाहिए। ऐसा न हो कि ये लोग कल को अपनी बात से मुकर जाएँ और दी हुयी जमीन फिर से वापिस ले लें।’

“आप के इन कृपालु शब्दों के लिए बहुत बहुत आभार,’” पाखोम ने कहा। “आपने कहा कि आप के पास बहुत जमीन है, परन्तु मुझे तो उसमें से बहुत थोड़ी सी ही चाहिए थी। मेरी इच्छा थी कि मुझे जो जमीन आप दें वह नाप कर  औ रस्पष्ट  रूप से चिह्नित करके लिखा-पढ़ी के साथ दें। अब यह तो सभी जानते हैं कि जीवन- मरण इश्वर के हाथ में है , और यद्यपि आप सब तो  बहुत अच्छे लोग हैं जो मुझे अपनी जमीन दे रहे हैं, परन्तु ऐसा न हो कि कल को आपकी संताने मुझसे वह वापस मांग लें।”

“ऐसा नहीं है,” प्रमुख ने कहा। “जमीन का हस्तांतरण तो हो गया। यह बैठक तो मात्र उसके प्रामाणीकरण के लिए है – और हमारे यहाँ इससे पुख्ता दस्तावेज़ तो कोई होता ही नहीं।“

“लेकिन,” पाखोम ने कहा , “मुझे मालूम चला था कि एक व्यापारी जो हाल में यहाँ आया था और जिसको आपने जमीन बेची थी, उसे आपने बाकायदा दस्तावेज़ दिए थे। इसलिए मुझे भी यदि ऐसे ही लिखा-पढ़ी में जमीन दी जाती तो बड़ा एहसान होता।”

प्रमुख सब समझ गया।

“कोई बात नहीं,” उसने उत्तर दिया, “हमारे यहाँ अभिलिखित करने वाले हैं, और कल हम शहर जायेंगे और आवश्यक मोहरें भी ले आयेंगे जिससे दस्तावेज़ तैयार किये जा सकें।”

“लेकिन आपने जमीन का मूल्य नहीं बताया?”, पाखोम ने पूछा।

“ओह! हमारा मूल्य है ,” प्रमुख ने जवाब दिया, “एक हजार रूबल प्रति दिन।”

दिवस के हिसाब से जमीन का यह मूल्य पाखोम की समझ में बिलकुल नहीं आया।

“यह कितना एकड़ होगा?”, पाखोम ने पूछा।

“हम लोग वैसे निर्धारण नहीं करते,’ प्रमुख ने कहा। “हम लोग दिन के हिसाब से ही जमीन बेचते हैं। कहने का मतलब यह है कि एक दिन में आप पैदल चल कर जितनी जमीन नाप डालेंगे उतनी जमीन आप की। हमारी नाप यही है और एक दिन की कीमत एक हजार रूबल।”

पाखोम अचरज से बोला – “तब तो एक दिन में तो बहुत सारी जमीन घेरी जा सकती है!”

प्रमुख मुस्कुराया।

“बिलकुल। और वह सब आपकी। बस एक शर्त है – और वह यह कि, यदि आप उसी दिन, उसी स्थान पर लौट कर न आ सके, जहाँ से चले थे, तो आप का पैसा जब्त हो जाएगा।”

“लेकिन वह स्थल कैसे निर्धारित किया जायेगा जहाँ से शुरुआत होगी?”

“जिस भी स्थान से आप चाहें,” प्रमुख ने उत्तर दिया। “हम और हमारे आदमी उस स्थान पर रुके रहेंगे जहाँ से आप शरुआत करेंगे। आपके पीछे हमारे कुछ लोग घोड़े पर चलते रहेंगे और जहाँ-जहाँ आप कहेंगे वहाँ-वहाँ निशान के लिए खूँटे गाड़ देंगे। फावड़े से भी निशान  बना देंगे। बस यही ध्यान रखना है कि सूरज ढलने के पूर्व ही उस स्थान पर वापस पहुँच जाना है जहाँ से प्रारंभ किया था। जितने जमीन आप तय कर लेंगे, वह सब आपकी।”

पाखोम ने सभी शर्तें स्वीकार कर लीं और यह तय हुआ कि अगले दिन तड़के ही कार्य शुरू कर दिया जाएगा। इसके बाद पुनः बातचीत, कुमिस, चाय और, मटन का दौर देर रात्रि तक चलता रहा और फिर पाखोम को मुलायम गद्दे लगे बिस्तर पर लिटा कर बश्कीर लोगों ने अगले दिन नदी किनारे एकत्रित होने का वायदा कर रात्रि के लिए विदा ली।

पाखोम एक क्षण भी नहीं सो पाया। उसकी आँखों में तो जमीन थी जिस पर उसे खेती करनी थी। वह रात भर उसी के बारे में सोचता रहा।

“मैंने निश्चय कर लिया है कि कल अधिक से अधिक क्षेत्रफल तय करने का प्रयास करूंगा- अहा! जमीन! कुछ वैसा  ही सुखमय जैसा अब्राहम के लिए ईश्वर द्वारा प्रतिश्रुत देश रहा होगा! एक दिन में पैंतीस मील तो आसानी से तय कर ही लूंगा। कितनी जमीन उसमें आ जायगी? लगभाग तीस हजार एकड़ ! तब मैं किसी के अधीन नहीं रहूँगा और, बैल, हल और आदमी भी रख लूंगा। अच्छी वाली जमीन पर तो खेती करूंगा और  बाकी पशुओं के चारे  के लिए रहेगी ।''

पाखोम रात भर नहीं सोया। भोर के कुछ पहले उसकी आंख झपी ही थी कि वह स्वप्न देखने लगा। बाहर से किसी की खिलखिलाकर हंसने की आवाज उसके कानों में आई। अचरज हुआ कि यह कौन हो सकता है? उठकर बाहर आकर देखा कि बाहर वह प्रमुख ही  बैठा जोर-जोर से हँस रहा है। हँसी के मारे उसने  अपना पेट पकड़ रखा है। पास जाकर पाखोम ने जैसे ही पूछना चाहा कि वह  ऐसे क्यों हँस रहा है, तो देखता है कि वहाँ प्रमुख तो है नहीं, बल्कि वह व्यापारी बैठा है जो अभी कुछ दिन पहले उसे अपने देश में मिला था और जिसने उसे इस जमीन की बात बताई थी। जैसे ही पाखोम उससे पूछने को हुआ कि ‘तुम वही हो न जो मेरे घर पर कुछ दिन पहले ठहरे थे?’, उसने  देखा कि वह तो वह व्यापारी भी नहीं है बल्कि वही पुराना किसान है जिसने मुद्दत हुई वोल्गा नदी के पार की जमीन का पता दिया था। लेकिन अंत में  देखता है कि यह तो वह किसान भी नहीं है, बल्कि खुद शैतान है, जिसके खुर हैं और सींग है। वही वहाँ बैठा सामने कुछ देख रहा है और जोर-जोर से हँस रहा है। पाखोम ने उस ओर ध्यान से देखा जिधर शैतान देख कर हँसे जा रहा था। उसने देखा कि वहाँ एक आदमी पड़ा हुआ है - नंगे पैर, बदन पर बस एक कुर्त्ता और घुड़सवारी वाला पायजामा - चेहरा कफ़न  सा सफ़ेद। और जब उसने और ध्यान से  देखा तो यह दिखा कि वह पड़ा हुआ आदमी और कोई नहीं बल्कि खुद पाखोम  ही है!

वह नींद में ही चौंक उठा और जग गया। उसे ऐसा लग रहा था कि वह सब कुछ सच में हो रहा था। उसने खिड़की की ओर देखा तो पाया कि भोर होने  ही वाली थी।

‘अरे! यह तो निकलने का समय हो गया,’, उसने सोचा। ‘मुझे उन लोगों को जगाना चाहिए।’

पाखोम उठा, अपने सेवक को जगाया और उस से कहा कि घोड़े को तैयार करे और बश्कीर लोगों को कह दे कि वे जल्द चलें क्योंकि जमीन को नापने का वक़्त हो गया है।

कुछ ही देर में प्रमुख भी आ गया। सबने कुमिस का नाश्ता किया और जब पाखोम को चाय की पेशकश की गयी तो उसने मना कर दिया। वह बेचैन हो रहा था– “समय हो गया है। कार्य करना है तो बस तत्काल चलिए आप लोग”, उसने कहा।

सब लोग निकल पड़े और कुछ ही देर में खुले मैदान पर पहुँच गये। पौ बस फट ही रही थी। वे लोग एक छोटे से टीले की ओर बढ़े और वहाँ पहुँच कर अपने-अपने घोड़ों से उतरे और एक जगह एकत्र हो गए। प्रमुख पाखोम के पास आया और अपने हाथ से सभी दिशाओं की ओर दिखाते हुए बोला –“यहाँ से  जितनी भी जमीन चारों और दिख रही है वह हमारी ही है। आप कोई भी दिशा चुन सकते हैं।”

पाखोम की आँखें चमक रहीं थीं। उसके सामने घास के मैदान का अनंत विस्तार था। सीने तक की ऊंची घास का ऐसा विस्तार जो केवल कहीं-कहीं किसी बीच गुजरते  नाले से ही टूटता दिखता था और जो उस धरती की उर्वरता को स्पष्ट प्रकट कर रहा था।

प्रमुख ने अपनी टोपी उतारी और टीले के ठीक बीच वाले स्थान पर रख दी। “यह निशान होगा”, उसने कहा। “आप जमीन का मूल्य इसमें रख दें, और आपका सेवक इसके पास ही रुका रहेगा जब आप अभी जायेंगे। आप इसी निशान से चलना शुरू करेंगे और वापस भी इसी जगह पर ही लौटना होगा। जमीन का जितना क्षेत्रफल आप तय कर लेंगे वह सब आपकी होगी।”

पाखोम ने पैसे निकाले और उस टोपी में रख दिए। उसने अपना अंगरखा उतार दिया, अपनी बेल्ट को कमर पर कसा, खाने कि पोटली अंगोछे में बांधी, पानी का एक फ्लास्क लटकाया, जूते ठीक किये और चलने के लिए तैयार हो गया। सोचने लगा कि किस दिशा को चुनूँ। सभी तरफ तो बढ़िया धरती थी। ‘जब सभी ओर ही अच्छी जमीन है तो मैं उगते सूरज की ओर चलता हूँ,’ उसने कुछ देर सोचने की बाद निर्णय लिया। उसने पूरब की और मुँह किया और सूरज की पहली किरण के दिखने की प्रतीक्षा करने लगा। ‘मुझे ज़रा भी समय नहीं खोना है,’ उसने सोचा, ‘और सुबह के समय जब थोड़ा ठंडा रहेगा तो अधिक से अधिक दूरी तय कर लेना है।’

क्षितिज पर सूर्य की पहली किरण दिखते ही पाखोम ने अपने कदम बढ़ा दिए। पीछे-पीछे घुड़सवार भी चल दिए।

वह न धीरे चल रहा था और न तेज़। हजार गज से कुछ अधिक दूरी के बाद वह रुक गया और उस स्थान पर निशान के लिए एक खूँटी गड़वायी। वह फिर चलने लगा। धीरे- धीरे शरीर का आलस्य कम हो रहा था,  गति में फुर्ती के साथ-साथ डग भी लम्बे होने लगे थे। कुछ देर बाद वह फिर रुका और उस स्थान पर एक और खूँटी गड़वायी। उसने सूरज की ओर देखा जो उस टीले को प्रकाशित कर रहा था जिस पर लोग खड़े दिख रहे थे। उसने अंदाजा लगाया कि वह लगभग साढ़े पाँच हजार गज की दूरी तय कर चुका है। उसे अब थोड़ी गरमी लगने लगी थी अतः उसने अपनी फतुही (वेस्टकोट) निकाल दिया, और अपनी बेल्ट को फिर से कसा। वह लगभग पाँच हजार गज और चला और फिर रुक गया। उसे अब काफी गरम लगने लगा था। उसने सूरज की ओर देखा तो उसे लगा कि नाश्ते का समय हो गया है। ‘एक पहर तो बीत गया। लेकिन दिन में चार पहर होते हैं । अरे, अभी तो जल्दी है। लेकिन जूते तो उतार ही डालूं।’,  यह सोच उसने जूते उतारकर दिए और बढ़ चला। अब चलना आसान था। सोचा, ‘अभी तीन-एक मील तो और भी चला चलूं। तब दिशा बदलूंगा। कैसी बेहतरीन जमीन है। इसे हाथ से जाने देना मूर्खता ही होगी। क्या बात है! जितना आगे बढ़ता जाता हूँ, उतनी ही बेहतरीन जमीन मिलती जाती है!’ कुछ देर वह सीधा ही बढ़ता चला। फिर पीछे मुड़कर देखा तो टीला बड़ी मुश्किल  से दीख पड़ रहा था, और उस पर के आदमी छोटी-छोटी चींटी से।

‘अब’, उसने अपने से बोला, ‘मैंने काफी बड़ा वृत्त बना लिया है और मुझे लौटना चाहिए।’ वह पसीने से तर-बतर था और प्यास से बेहाल। उसने कंधे से फ्लास्क उतारकर पानी पिया, उस स्थान पर एक खूँटी गड़वायी, और वहाँ से बाएं घूम गया। चलता गया, चलता गया, ऊंची घास, और प्रचंड गरमी के बीच। वह थकने लगा था। सूरज की ओर देखा तो उसे लगा कि भोजन का वक़्त हो गया है। सोचा, अब जरा आराम कर लेना चाहिए। अतः वह वहाँ रुक गया। अपनी पोटली से निकाल कर रोटी खाया, लेकिन खड़े खड़े ही। उसने अपने आप से कहा- ‘यदि मैं बैठ गया तो शायद लेट भी जाऊं, और तब फिर शायद सो भी जाऊंगा।’ इसलिए वह बस  कुछ देर वहाँ रुका रहा, और जैसे ही लगा कि थकान कुछ कम हो गयी है तो पुनः चल पड़ा। प्रारम्भ में तो चलना आसान लगा क्योंकि भोजन ने उसे ऊर्जा दे दी थी, पर जल्द ही सूर्य की गरमी बढ़ती महसूस होने लगी। पाखोम थकान से चूर था लेकिन फिर उसने यह कह अपने को शक्ति दी -‘बस घड़ी दो घड़ी का कष्ट और जीवन भर का सुख।’

इस वृत्त में वह लगभग सात मील की दूरी तय कर चुका था और अब बस अन्दर की ओर बाएं मुड़ने ही वाला था कि तभी एक सूखे नाले से लगा हुआ एक बहुत ही बेहतरीन टुकड़ा दिखायी दे गया। ‘इसे तो छोड़ा ही नहीं जा सकता। यह जमीन तो अलसी उगाने  के लिए गज़ब की है’, उसने तुरंत सोचा। अतः वह मुड़ा नहीं , सीधे ही  बढ़ गया और नाले को अपनी जद में ले लेने के बाद वहाँ एक खूँटी गड़वायी, और तब अन्दर की ओर मुड़ा।

टीले की ओर देखने पर वहाँ खड़े लोगों की मात्र आकृतियाँ ही नज़र आ रही थीं। वे कम से कम दस मील की दूरी पर तो थे ही।

‘मैंने अपने घेरे की दो लम्बी भुजाएं तो नाप ली हैं , अब इस अंतिम वाली को थोडा छोटा ही रखता हूँ।’, यह सोचते हुए वह चक्कर के अंतिम भाग को पूर्ण करने के लिए चलना शुरू किया और अपनी चाल भी बढ़ा दी। उसने चलते-चलते सूरज की ओर देखा तो वह उसे शाम का आभास देता दिखा; और इधर मात्र डेढ़ मील की ही दूरी तय हो पायी थी। जिस बिंदु से प्रारंभ किया गया था वह तो अभी साढ़े आठ मील दूर था। ‘चाहे जितना भी ऊबड़-खाबड़ पथ हो, मुझे और तेज़ चलना चाहिए। अब मुझे रास्ते में एक भी जमीन के और किसी टुकड़े के बारे में नहीं सोचना है। वैसे भी मैंने काफी बड़ा  घेरा तय कर लिया है।’ अपने आप से वह यह सब कहते हुए टीले की ओर तेज़ी से बढ़ने लगा।

लेकिन अब चलते मुश्किल होती थी। नंगे पैर जगह-जगह कट और छिल गये थे और टांगें जवाब दे रही थीं। कितना जी कर रहा था कि थोड़ा आराम कर लेता, लेकिन यह कैसे हो सकता था? सूरज छिपने से पहले उसे वहां वापस पहुँच जाना था। सूरज किसी की बाट देखता तो बैठा नहीं रहता! वह पल-पल नीचे ढल रहा था और किसी कोचवान की तरह उसे हाँक रहा था। वह सोचता जा रहा था- ‘मेरा हिसाब कुछ गलत तो नहीं हो गया? ऐसा तो नहीं कि मैंने कुछ अधिक भूमि ले ली है और मैं वापस पहुँच ही न पाऊँ? अरे! अभी तो बहुत दूरी तय करने को पड़ी है और मैं थक के चूर हो चुका हूँ। कहीं मेरी सारी मेहनत और पैसा व्यर्थ न चला जाय? नहीं, बिलकुल नहीं, मुझे सफल होना ही है।

पाखोम ने अपनी पूरी ताकत बटोरी और दौड़ना शुरू कर दिया। उसके पैर फट चुके थे और उनसे खून रिसने लगा था, लेकिन वह फिर भी दौड़ रहा था, दौड़ता जा रहा था, दौड़ता ही जा रहा था।  वास्केट, जूते, फ्लास्क, टोपी- उसने बारी-बारी सब फेंक दिए। ‘आह!’ उसके मन में ख्याल आया, ‘मैं यहाँ यह सब देख कर कुछ अधिक ही खुश  हो गया था। लेकिन अब तो सब कुछ खो रहा हूँ , और अब मैं सूर्यास्त तक उस बिंदु तक पहुँच नहीं पाऊंगा।’

उसका भय उसे और बेदम बना रहा था, पर वह दौड़ रहा था, पसीने से उसकी शर्त और पतलून उसके शरीर से चिपक गये थे, और उसका मुँह सूख गया था। उसका सीना किसी लोहार की धौंकनी की तरह चल रहा था और उसके दिल पर हथोड़े से पड़ रहे थे, जबकि उसके पैर टूट से गये थे और ऐसा लग रहा था कि वे उसके शरीर के साथ अब हैं ही नहीं। उसके दिमाग से जमीन के सारे ख्याल निकल चुके थे। उसे केवल एक ही ख्याल था कि बस वह ज़िंदा बच जाये। परन्तु, यद्यपि वह अपनी जान को लेकर इतना भयभीत था, वह तब भी रुक नहीं पा रहा था। वह सोच रहा था, ‘इतनी दूर आ कर मैं रुक जाऊं! तब तो मुझे सब मूर्ख ही समझेंगे।’ अब तो उसे बश्कीरों की आवाज़ भी सुनायी दे रही थी जो उसे आवाज़ देकर उसका उत्साह बढ़ा रहे थे। उनके शोर ने उसमें एक नयी ऊर्जा का संचार किया, और उधर सूरज क्षितिज को छू ही रहा था कि उसने  अपनी समस्त बची हुयी ताकत दौड़ने में  झोंक दी। आह! अब तो वह निर्दिष्ट स्थान के बिल्कुल निकट था! उसे टीले पर खड़े, उसे हाथ हिलाते और उसका उत्साहवर्धन करते लोग साफ़ दिखाई दे रहे थे। और तो और, उसे तो जमीन पर रखी वह टोपी भी दिखाई दे रही थी और उसमें रखे पैसे भी, जिसके बगल में प्रमुख बैठा हुआ था- जो अपना पेट पकड़ कर हँसता ही जा रहा था।

अचानक पाखोम को अपना देखा स्वप्न याद आ गया। ‘ओह, जमीन तो मैंने  काफी नाप डाली है,’ उसने सोचा।  ‘बस ईश्वर मुझे उसको भोगने के लिए बचने दे? मेरी जान तो गई लगती है।’ पर वह तब भी दौड़ता रहा। उसने अंतिम बार सूरज की ओर देखा। बड़ा और लाल, वह धरती को छू चुका था और अब क्षितिज से नीचे जा रहा था। उधर सूरज डूबा और इधर पाखोम टीले तक पहुँच गया। ‘आह!’, उसे लगा कि उसने सब कुछ खो दिया और हताशा में उसके मुँह से एक चीख निकल गयी। पर तभी उसे ख्याल आया कि वह तो टीले के नीचे है और भले उसके लिए सूरज छिप गया है, टीले पर खड़े लोगों को तो वह अब भी दिखायी दे रहा होगा। वह टीले की  ढलान पर तेज़ी से  चढ़ने लगा और चढ़ते-चढ़ते देखा कि टोपी यथावत रखी है। तभी वह लड़खड़ा कर गिरा- पर गिरते गिरते भी उसने अपना हाथ बढ़ाया- और उस टोपी को छू लिया!

“वाह, नौजवान,” प्रमुख जोर से बोला, “निस्संदेह, आपने बहुत सारी जमीन अर्जित कर ली।”

सेवक दौड़ कर पाखोम के पास गया और उसे उठाने की कोशिश की, लेकिन उसके मुँह से खून निकल रहा था। पाखोम मृत हो चुका था।

सेवक विस्मित हो जोर से चीखा, परन्तु प्रमुख उसी तरह अपने पुट्ठों पर बैठा अपना पेट पकड़ कर ठठा कर हँसता ही जा  रहा था।

कुछ देर बाद जब किसी तरह उसकी हँसी रुकी तो वह उठा, जमीन से एक कुदाल उठायी और सेवक की ओर फेंका।

“दफना दो”, केवल इतना ही कहा और मुड़ कर चल दिया।

बाकी बश्कीर गण भी उठे और वे भी उसके पीछे चल दिए।

वहाँ केवल सेवक रह गया।

उसने पाखोम के शरीर की लम्बाई के बराबर कब्र खोदी- छह फीट- और उसे उसमे दफ़न कर दिया।  

 

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-       अनुवाद और सम्पादन- डॉ स्कन्द शुक्ल